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रंगभूमि


बैठ जाओ। मैं भी वहीं चलता हूँ। मुझे तो अभी-अभी मालूम हुआ कि ये लोग जा रहें हैं, जल्दी से गाड़ी तैयार करके आ पहुँचा, नहीं तो मुलाकात भी न होती।"

सोफी—"मैं इतनी दूर निकल आई, और जरा भी खयाल न आया कि कहाँ जा रही हूँ।"

प्रभु सेवक— "आकर बैठ न जाओ। इतनी दूर आई हो, तो स्टेशन तक और चली चलो।"

सोफी—"मैं स्टेशन न जाऊँगी। यहीं से लौट जाऊँगी।”

प्रभु सेवक—"मैं स्टेशन से लौटता हुआ आऊँगा। आज तुम्हें मेरे साथ घर चलना होगा।"

सोफी— मैं वहाँ न जाऊँगी।"

प्रभु सेवक—"बड़े पापा बहुत नाराज होंगे। आज उन्होंने तुम्हें बहुत आग्रद कर के बुलाया है।"

सोफी—"जब तक मामा मुझे खुद आकर न ले जायँगी, उस घर में कदम न रखूँगी।"

यह कहकर सोफी लौट पड़ी, और प्रभु सेवक स्टेशन की तरफ चल दिये। स्टेशन पर पहुँचकर विनय ने चारों तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखा, सोफी न थी।

प्रभु सेवक ने उनके कान में कहा-“धर्मशाले तक यों ही रात के कपड़े पहने चली आई थी, वहाँ से लौट गई। जाकर खत जरूर लिखिएगा, वरना बह राजपूताने जा पहुँचेगी।"

विनय ने गद्गद कंठ से कहा-"केवल देह लेकर जा रहा हूँ, हृदय वहीं छोटे जाता हूँ।"