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रंगभूमि

प्रभु सेवक- "इससे निश्चित रहो।"

सोफिया-"कुछ निश्चय हुआ, यहाँ से उनके जाने का कब इरादा है?"

प्रभु सेवक-"तैयारियाँ हो रही हैं। रानी जी को यह बात मालूम हुई, तो विनय के लिए कुशल नहीं। मुझे आश्चर्य न होगा, अगर मामा से इसकी शिकायत करें।"

सोफिया ने गर्व से सिर उठाकर कहा-"प्रभु, कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की समस्त चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।"

प्रभु सेवक चले गये, तो सोफिया ने किताब बंद कर दी, और बाग में आकर हो घास पर लेट गई। उसे आज लहराते हुए फूलों में, मंद-मंद चलनेवाली वायु में, वृक्षों पर चहकनेवाली चिड़ियों के कलरव में, आकाश पर छाई लालिमा में एक विचित्र शोभा, एक अकथनीय सुषमा, एक अलौकिक छटा का अनुभव हो रहा था। वह प्रेम-रत्न पा गई थी।

उस दिन के बाद एक सप्ताह हो गया, विनयसिंह ने राजपूताने को प्रस्थान न किया। वह किसी-न-किसो हीले से दिन टालने जाते थे। कोई तैयारी न करनी थी, फिर भी तैयारियां पूरी न होती थीं। अब विनय और सोफिया, दोनों ही को विदित होने लगा कि प्रेम को, जब वह स्त्री और पुरुष में हो, वासना से निर्लिप्त रखना उतना आसान नहीं, जितना उन्होंने समझा था। सोपी एक किताब बगल में दबाकर प्रातःकाल बाग में जा बैठती। शाम को भी कहीं और सैर करने न जाकर वहीं आ जाती। विनय भी उससे कुछ दूर पर लिखते-पढ़ते, कुत्ते से खेलने या किसी मित्र से बातें करते अवश्य दिखाई देते। दोनों एक दूसरे की ओर दबी आखों से देख लेते थे; पर संकोच वश कोई बातचीत करने में अग्रसर न होता था। दोनों ही लजाशील थे; पर दोनों इस मौन-भाषा का आशय समझते थे। पहले इस सपा का ज्ञान न था। दोनों के मन मे एक ही उत्कंठा, एक हो विकलता, एक ही तड़ा, एक ही ज्वाला थी। मौन-भाषा से उन्हें तस्कीन न होती; पर किसी को वार्तालार करने का साहस न होता। दोनों अपने-अपने मन में प्रेम-वार्ता की नई-नई उक्तियाँ सोचकर आते, और यहाँ आकर भूल जाते। दोनों ही व्रतधारी, दोनों ही आदर्शवादी थे; किंतु एक का धर्म-ग्रंथों की ओर ताकने को जी न चाहता था, दूसरा समिति को अपने निर्धारित विषय पर व्याख्यान देने का अवसर भी न पाता था। दोनों ही के लिए प्रेम-रत्न प्रेम-मद सिद्ध हो रहा था।

एक दिन, रात को, भोजन करने के बाद, सोफिया रानी जाह्नवी के पास बैठी हुई कोई समाचार-पत्र पढ़कर सुना रही थी कि विनयसिंह आकर बैठ गये। सोफी की विचित्र दशा हो गई, पढ़ते-पढ़ते भूल जाती कि कहाँ तक पढ़ चुकी हूँ, और पढ़ी हुई पंक्तियों को फिर पढ़ने लगती, वह भी अटक-अटककर, शब्दों पर आँखें न जमतीं। वह भूल जाना चाहती थी कि कमरे में रानी के अतिरिक्त कोई और बैठा हुआ है, पर बिना विनय की ओर देखे ही उसे दिव्य ज्ञान सा हो जाता था कि अब वह मेरी ओर