करूँगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मेरे प्रेम मे वासना का लेश भी नहीं है। मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए यह अनुराग ही काफी है। यह मत समझो कि मैं सेवा-धर्म का त्याग कर रहा हूँ। नहीं, ऐसा न होगा, मैं अब भी सेवा-मार्ग का अनुगामी रहूँगा; अंतर केवल इतना होगा कि निराकार की जगह साकार की, अदृश्य की जगह दृश्यमान की भक्ति करूँगा।”
सहसा जाह्नवी ने आकर कहा- विनय, जरा इन्दु के पास चले जाओ, कई दिन से उसका समाचार नहीं मिला। मुझे शंका हो रही है, कहीं बीमार तो नहीं हो गई। खत भेजने में इतना विलंब तो कभी न करतो थी!”
विनय तैयार हो गये। कुरता पहना, हाथ में सोटा लिया, और चल दिये। प्रभु सेवक सोफी के पास आकर बैठ गये, और सोचने लगे-विनयसिंह को बातें इसने कहूँ या न कहूँ। सोफो ने उन्हें चिंतित देखकर पूछा-"कुँवर साहब कुछ कहते थे?”
प्रभु सेवक--"उस विषय में तो कुछ नहीं कहते थे; पर तुम्हारे विषय में ऐसे भात्र प्रकट किये, जिनकी संभावना मेरी कल्पना में भी न आ सकती थी।"
सोफ़ी ने क्षण-भर जमीन की ओर ताकने के बाद कहा-"मैं समझती हूँ, पहले हो समझ जाना चाहिए था; पर मैं इससे चिंतेत नहीं हूँ। यह भावना मेरे हृदय में उसी दिन अंकुरित हुई, जब यहाँ आने के चौथे दिन बाद मैंने आँखें खोली, और उस अर्द्धचेतना की दशा में एक देव-मूर्ति को सामने खड़े अपनी ओर वात्सल्य-दृष्टि से देखते हुए पाया वह दृष्टि और वह मूर्ति आज तक मेरे हृदय पर अंकित है, और सदैव अंकित रहेगी।"
प्रभु सेवक-"सोफो, तुम्हें यह कहते हुए लजा नहीं आतो?"
सोफिया-"नहीं, लज्जा नहीं आती। लज्जा को बात ही नहीं है। वह मुझे अपने प्रेम के योग्य समझते हैं, यह मेरे लिए गौरव की बात है। ऐसे साधु-प्रकृति, ऐसे त्याग-मृति, ऐसे सदुत्साही पुरुष की प्रेम-पात्री बनने में कोई लज्जा नहीं। अगर प्रेम-प्रसाद पाकर किसी युवती को गर्व होना चाहिए, तो वह युक्ती मैं हूँ। यही वरदान था, जिसके लिए मैं इतने दिनों तक शांत भाव से धैर्य धारण किये हुए मन में तप कर रही थी। वह वरदान आज मुझे मिल गया है, तो यह मेरे लिए लजा की बात नहीं, आनन्द की बात है।"
प्रभु सेवक—"धर्म-विरोध के होते हुए भी?”
सोफिया—“यह विचार उन लोगों के लिए है, जिनके प्रेम बासनाओं से युक्त होते है। प्रेम ओर वासना में उतना ही अंतर है, जिनता कंचन और काँच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती है, और उनमें केवल मात्रा का भेद है। भक्ति में सम्मान का और प्रेम में सेवा-भाव का आधिक्य होता है। प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधन नहीं है। ऐसी बाधाएँ उस मनोभाव के लिए हैं, जिसका अंत विवाह है, उस प्रेम के लिए नहीं, जिसका अंत बलिदान है।”
प्रभु सेवक—"मैंने तुम्हें जता दिया, यहाँ से चलने के लिए तैयार रहो।"
सोफिया—“मगर घर पर किसी से इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं।"