और आर्थिक पतन का मुख्य कारण है। आपकी कविता सर्वथा असामयिक है। मेरे विचार में इससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। इस समय हमारे कवियों का कर्तव्य है त्याग का महत्त्व दिखाना, ब्रह्मचर्य का अनुराग उत्पन्न करना, आत्मनिग्रह का उपदेश करना। दाम्पत्य तो दासत्व का मूल है। और यह समय उसके गुण-गान के लिए अनुकूल नहीं है।”
प्रभु सेवक—"आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?”
विनयसिंह—"अभी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय इतना ही काफी है।"
प्रभु सेवक—"मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि बलिदान और त्याग के आदर्श को मैं निन्दा नहीं करता। वह मनुष्य के लिए सबसे ऊँचा स्थान है; और वह धन्य है, जो उसे प्राप्त कर ले। किन्तु जिस प्रकार कुछ व्रतधारियों के निर्जल और निराहार रहने से अन्न और जल की उपयोगिता में बाधा नहीं पड़ती, उसी प्रकार दो-चार योगियों के त्याग से दाम्पत्य जीवन त्याज्य नहीं हो जाता। दाम्पत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग कर दीजिए, बस, हमारे सामाजिक संगनठ का शीराजा बिखर जायगा, और हमारी दशा पशुओं के समान हो जायगी। गार्हस्थ्य को ऋषियों ने सर्वोच्च धर्म कहा है; और अगर शांत हृदय से विचार कीजिए, तो विदित हो जायगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति-मात्र नहीं है। दया, सहानुभूति, सहिष्णुता, उपकार; त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग गार्हस्थ्य जीवन में प्राप्त होते हैं, और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते। मुझे तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं है कि मनुष्य के लिए यही एक ऐसी व्यवस्था है, जो स्वाभाविक कही जा सकती है। जिन कृत्यों ने मानव जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया है, उनका श्रेय योगियों को नहीं, दाम्पत्य-सुख-भोगियों को है। द्रिश्चन्द्र योगी नहीं थे, रामचन्द्र योगी नहीं थे, कृष्ण त्यागी नहीं थे, नेपोलियन त्यागी नहीं था, नेलसन योगी नहीं था। धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में त्यागियों ने अवश्य कीर्ति-लाभ की है; लेकिन कर्म-क्षेत्र में यश का सेहरा भोगियों ही के सिर बँधा है। इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता कि किसी जाति का उद्धार त्यागियों द्वारा हुआ हो। आज भी हिन्दुस्थान में १० लाख से अधिक त्यागी बसते हैं; पर कौन कह सकता है कि उनसे समाज का कुछ उपकार हो रहा है। संभव है, अप्रत्यक्ष रूप से होता हो; पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। फिर यह आशा क्योंकर की जा सकती है कि दांम्पत्य जीवन की अवहेलना से जाति का विशेष उपकार होगा। हाँ, अगर अविचार को आप उपकार कहें, तो अवश्य उपकार होगा।"
यह कथन समाप्त करके प्रमु सेवक ने सोफिया से कहा—"तुमने दोनों वादियों के कथन सुन लिये, तुम इस समय न्याय के आसन पर हो, सत्यासत्य का निर्णय करो।"
सोफी—"इस निर्णय तो तुम आर ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज है।"