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कर्म
 

बैठकर ध्यान न भी करें अथवा योगका कोई खास साधन न भी साधें। ध्यान कैसे किया जाय, यह बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं है; जो कुछ भी आवश्यक है वह अपने आप आ जायगा यदि तुम अपना कर्म करते हुए तथा सदा-सर्वदा ही सच्चे, सहृदय बने रहो और अपने आपको माताके अभिमुख रखो।

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कर्ममें उद्घाटित होना वही बात है जो चैतन्यमें उद्घाटित होना है। वही शक्ति जो तुम्हारे ध्यानावस्थामें चैतन्यमें उतर आती और उसकी ओर तुम्हारे उद्घाटित होनेपर तुमको संशय और विभ्रमसे निरभ्र कर देती है, वही शक्ति तुम्हारे कर्मको भी हाथमें ले सकती है और न केवल उस कर्मसम्बन्धी दोषोंसे तुम्हें सावधान कर सकती है बल्कि तुम्हारे अन्दर यह उद्बोघ करा सकती है कि आगे क्या करना होगा, और जो कुछ करना होगा उसके करनेमें तुम्हारे अन्तः- करण और हाथोंको निर्देश कर सकती है। यदि तुम अपने कर्ममें इस प्रकार उसकी ओर अपने आपको खोल दो तो तुम उसके इस निर्देशको अधिकाधिक अनुभव करोगे, यहाँतक कि, तुम अपने सब कर्मों के पीछे माताकी कर्मशक्तिका अनुभव करोगे।

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