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कर्म
 

त्मानुभूतिके लिये सर्वथा अन्तर्मुख होना और कर्मकी, बहिर्भूत चेतनाकी, उपेक्षा करना साधनामें विसङ्गत होना, एकदेशीय होना है—कारण, हमारा योग सर्वाङ्गीण है। इसी प्रकारसे सर्वथा बहिर्मुख होना और बाह्य सत्तामें ही रहना साधनामें विसंगत, एकदेशीय होना है। आन्तरिक अनुभवमें और बाह्य कर्ममें एक ही चैतन्य होना चाहिये और ये दोनों मातृशक्तिसे पूर्ण होने चाहिये।

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कर्मको बना रखना आन्तरिक अनुभव और बाह्य विकासमें सामञ्जस्य बना रखना है; अन्यथा एकदेशीयता

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