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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

स्थानसे सोचो अथवा उसका प्रतीक उसी स्थानसे देखनेका अभ्यास करो। यदि इस प्रकार ध्यान करना आ जाय तो कुछ काल बाद तुम्हारा सम्पूर्ण चैतन्य उसी एक स्थानमें, अवश्य ही उतने समयके लिये, केन्द्रीभूत हो जायगा। कुछ कालतक और बार-बार ऐसा अभ्यास हो जानेपर यह अवस्था अनायास और सहज-सी हो जायगी।

मैं समझता हूँ, यह बात स्पष्ट हो गयी। अस्तु, इस योगमें, यही अभ्यास करना होता है, यह कोई जरूरी बात नहीं कि यह अभ्यास भ्रूमध्यमें ही किया जाय, बल्कि मस्तकमें कहीं भी अथवा हृच्चक्र (अनाहत) में, जहाँ प्राणिगुणधर्मविदोंने 'कारडिआक सेंटर' (हृदय-चक्र) का होना माना है, किया जा सकता है। किसी बाह्य विषयपर एकाग्रतासाधन करनेके बदले यहाँ मस्तकमें तुम्हें इस संकल्पपर या इस प्रार्थनामें ध्यान जमाना है कि ऊर्ध्वस्थित जो शान्ति है वह नीचे उतर आवे, अथवा जैसा कि कुछ साधक करते हैं, यह ध्यान जमाओ कि अदृष्ट आवरण हट जाय और आत्मचैतन्य ऊर्ध्वमें आरोहण करे। हृच्चक्रमें इस अभीप्साके साथ ध्यान होता है कि हृत्पद्म उन्मीलित हो, उसमें श्रीभगवान्की सजीव मूर्तिका अथवा और जो कुछ ध्येय हो उसका दर्शन हो। नामका

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