एकाग्र करते हैं। तब कोई ध्यानपूर्वक देखे तो यह देखनेमें आवेगा कि चैतन्य किसी एक स्थानमें, किसी एक विचार या पदार्थमें एकाग्र हुआ है―जैसे कविका चित्त कविता करते हुए या वनस्पतिशास्त्रज्ञका चित्त किसी फूलके निरीक्षणमें एकाग्र होता है। यह एकाग्रता यदि विचार- की होती है तो उसका स्थान प्रायः मस्तिष्कमें होता है, यदि भावके सम्बन्ध में है तो उसका स्थान हृदय होता है। बस, इसी एकाग्रताका विस्तृत और घनीभूत होना ही योगगत ध्यान है। यह ध्यान किसी भी पदार्थपर हो सकता है, जैसे त्राटकमें किसी ज्योतिर्विन्दुका ध्यान किया जाता है―यहाँ इतना एकाग्र होना पड़ता है कि उस बिन्दुके सिवाय और कुछ भी न दिखायी दे और कोई दूसरा विचार भी मनमें न आवे। ध्यान किसी भावनाका हो सकता है, किसी शब्दका हो सकता है, किसी नामका हो सकता है; भगवान्की भावना, ॐ की ध्वनि, कृष्णका नाम अथवा भावना और ध्वनिका या भावना और नामका संघात, ये सभी ध्यानके विषय हो सकते हैं। पर योगमें आगे चलकर किसी खास स्थानमें भी ध्यान करना पड़ता है। भ्रूमध्यमें ध्यानका नियम सुप्रसिद्ध है―यहाँ आन्तर मन-बुद्धि, अन्तर्दृष्टि और अन्त- स्संकल्पका चक्र या केन्द्र है। इस ध्यानमें यही करना होता है कि तुम्हारे ध्यानका जो कोई विषय हो उसे उसी
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योगप्रदीप
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