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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

इस खोजमें नहीं प्रवृत्त होता कि सच्चा आनन्द भी कहीं है या नहीं, और शरीर भी थककर अपने आपसे तथा अपने सुख-दुःखोंसे मुक्त होना नहीं चाहता। जब मन, प्राण और शरीरकी यह हालत होती है तब आत्माके इस अति क्षुद्र अंशके लिये यह सम्भव होता है कि अपने वास्तविक ‘आप’ को तथा उसके साथ इन दिव्य अवस्थाओंको प्राप्त हो―अथवा, अन्यथा निर्वाणको प्राप्त हो।

वास्तविक जो आत्मा है वह बाहर सतहपर नहीं, भीतर गुहामें और ऊर्ध्वमें है। भीतर अन्तरात्मा है जो आन्तर मन, आन्तर प्राण और आन्तर शरीर धारण करता है जिसमें विश्वमें व्याप्त होनेकी सामर्थ्य है और इसके साथ उन वस्तुओंको पानेकी सामर्थ्य है जिन वस्तुओंको पानेकी ओर अब प्रवृत्ति हुई है―अर्थात् अपने ‘आप’ और पदार्थों के अन्तर्निहित सत्यके साथ अबाध सम्बन्ध, विश्वानन्दका समास्वादन, और स्थूल अन्नमय शरीरकी बद्ध क्षुद्रता और उसके दुःखोंसे मुक्ति। आजकल यूरोपमें भी बाह्य चेतनाके परे और किसी वस्तुके होनेकी बात प्रायः ही मानी जाने लगी है, पर उसके स्वरूपके विषयमें अभी उन लोगोंको भ्रम है और उसे भ्रमसे वे लोग अवचेतन या अबोधस्वरूप मानते हैं। यथार्थमें वह वस्तु अपने ढंगकी

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