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योगप्रदीप है जो शेष प्रकृतिका मुख वास्तविक परम विज्ञानकी ओर और अन्तमें परम आनन्दकी ओर खोल देता है। मन- बुद्धि अपनेसे भी अपने उच्चतर स्तरोंकी ओर खुल सकती है, वह अपनेको स्थिर करके अव्यक्त में व्याप्त हो सकती है, यह अध्यात्मप्रवण होकर किसी प्रकारके अचल मोक्ष या निर्वाणको प्राप्त हो सकती है, पर विज्ञानके ठहरनेके लिये ऐसा अकेला आत्मप्रवण मन ही पर्याप्त आश्रय- स्थान नहीं हो सकता । यदि अन्तस्तम अन्तरात्मा जाग जाय, यदि मनोमय प्राणमय और अन्नमय कोषसे निकलकर अन्तरात्मचैतन्यमें नया जन्म हो, तो ही यह योग साधा जा सकता है, अन्यथा (मन या अन्य किसी अङ्गकी अकेली शक्तिसे) यह असम्भव है। यदि अन्तरात्म चैतन्यमें नवजन्मग्रहणसे इन्कार हो, यदि अपने बौद्धिक ज्ञान या मानसिक संस्कार या किसी प्राणगत वासनाके कारण भगवती मातासे नवजन्म लेकर नवजात शिशु बननेसे इन्कार हो तो साधनामें सफलता नहीं होगी। शान्ति या निश्चल नीरवताके प्राप्त होनेका पूर्ण निश्चित माग है उसका ऊपरसे अवतरित होना । यह अवतरण यथार्थमें, वस्तुतः, सदा इसी प्रकारसे होता है कि साधक अपने अन्दर शान्ति स्थिर होती हुई या कम-से-कम [६०]