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योगप्रदीप
 

वासनारहित अहङ्काररहित विशुद्ध आत्मसमर्पणकी पात्रता, ये ही हृत्पुरुषके पूर्ण उद्घाटनके साघन हैं।

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हृदयको शुष्क कर देना, इस योगका कोई अंग नहीं है, पर हृदयकी जो उमङ्ग हैं उन्हें भगवान्‌की ओर फेर देना होगा। थोड़ी-थोड़ी देरके लिये ऐसी भी अवस्था होती है जब हृदय उपराम हो जाता है, अपने सामान्य भावों से हटकर ऊपर से आनेवाले अन्तःप्रवाहकी प्रतीक्षा करता है; पर यह अवस्था हृदयके शुष्क होनेकी अवस्था नहीं बल्कि नीरव निश्चलता और शान्तिकी अवस्था है। यह हृदय ही ध्यानका मुख्य केन्द्र होना चाहिये जबतक कि चेतनाकी गति आप ही ऊपरकी ओर न हो जाय।

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सब प्रकारकी आसक्ति साधना में बाधक है। सबके कल्याणकी कामना, सबके लिये अन्तरात्माकी दयाका होना तो ठीक है, पर किसी प्रकारकी प्राणगत आसक्ति न होनी चाहिये।

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साधकका प्रेम भगवान् के लिये होना चाहिये। जब यह भगवत्प्रेम पूर्ण होता है तभी वह दूसरोंसे भी यथार्थ-रूपसे प्रेम कर सकता है।

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