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आधारके लोक और अंग
 

स्वरूप है। परम भाव में तीन स्वरूप नहीं, एक ही स्वरूप है—सत् चैतन्य है, चैतन्य ही आनन्द है, और इस प्रकार तीनों एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते, केवल अलग ही नहीं किये जा सकते यह बात नहीं, बल्कि वे इतने परस्पर एक हैं कि अलग-अलग उनकी प्रतीति ही नहीं हो सकती। व्यक्तीकरणके उच्च स्तरोंमें ये त्रिक हो जाते हैं, यहाँ यद्यपि एक दूसरेसे अलग तो नहीं किये जा सकते पर एकका प्रधानत्व और औरोंका गौणत्व हो सकता है। नीचे उतरकर निम्न लोकोंमें वे बाह्य रूपमें अलग-अलग हो सकते हैं यद्यपि अन्तः स्वरूपसे एक ही रहते हैं; और इनमें से कोई भी बाह्यतः दूसरोंके बिना रह सकता है और इसीसे हमें उस स्थितिका बोध होता है जो स्थिति हमें चैतन्यरहित जड़की या दुःखसहित सत्ताको या आनन्दरहितचैतन्यकी-सी प्रतीत होती है। इनका इस प्रकार पार्थक्य अनुभूत हुए बिना दुःख और अज्ञान और असत्य और मृत्यु और वह चीज जिसे हम जड़ कहते हैं, ये सब अपने आपको व्यक्त ही नहीं कर सकते—पार्थिव प्रकृतिकी विश्वव्याप्त अविद्यामेंसे सान्त और दुखी चैतन्यका निकलकर विकासको प्राप्त होना, इसके बिना बन ही न सकता।

 


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