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योगप्रदीप त्मकता अधिकाधिक क्षीण होती जाती है । प्रत्यक्षानुभूत सत्यकी जो क्रियाशक्ति उनमें होती है वह मानव अन्तः- करणमें आकर कुछ रही नहीं जाती; क्योंकि ये चीजें मनुष्यकी बुद्धिमें अनिश्चयात्मक भावनाओं और कल्पनाओंके ही रूपमें आती हैं-अनुभूत सत्यके रूपमें नहीं, प्रत्यक्ष दृष्ट वस्तुके रूपमें नहीं; किसी ऐसे रूपमें नहीं कि जिसमें शक्तियुक्त दर्शन हो और साथ ही प्रत्यक्ष अबाध्य अनुभव हो। विज्ञान श्रीसच्चिदानन्द और अपरा सृष्टिके मध्यमें है। इसी विज्ञानमें ही भगवच्चैतन्यका स्वसंकल्पात्मक सत्य निहित है और इसलिये सत्सृष्टिके लिये यह आवश्यक है। सच्चिदानन्दकी अनुभूति मन, प्राण और शरीर- के भी सम्बन्धसे, अवश्य ही हो सकती है पर यह अनुभूति एक प्रकारकी अविचल स्थिति है जिसकी प्राप्ति अपरा प्रकृतिको धारण तो करती है पर उसे दिव्य स्वरूप नहीं प्राप्त कराती। अपरा प्रकृतिको पलटकर दिव्य बनानेकी सामर्थ्य विज्ञानमें ही है। सच्चिदानन्द भगवान् एक हैं और उनका त्रिविध [४०]