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योगप्रदीप
 

होने में जीवकी सहायता हो और वह जीव शीघ्रतापूर्वक हृल्लोक में पहुँचकर शान्ति लाभ कर सके।

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व्यक्तिगत मानव चैतन्य अपने आपको विश्वचैतन्यमें फैलाता है और वह विराट् चैतन्यसे सब प्रकारका व्यवहार कर सकता है, उसमें प्रवेश कर सकता है, उसकी वृत्तियोंको जान सकता है, उससे आदान-प्रदान कर सकता है, उसके बराबर हो सकता है या उसे अपने अन्दर भी ला सकता है अर्थात्, प्राचीन योगमार्गोंकी भाषामें ब्रह्माण्डको अपने अन्दर देख सकता है।

विराट् या विश्वचैतन्य विश्वका, विश्वात्माका और सब प्राणियों और सब शक्तियोंसमेत विश्वप्रकृतिका चैतन्य है। यह सब, सम्पूर्णरूपमें वैसा ही चेतन है जैसा कि व्यष्टिगत चैतन्य पृथक् रूपसे है, यद्यपि सम्पूर्णका चैतन्य व्यष्टिगत चैतन्यसे कुछ भिन्न प्रकारका है। व्यष्टिगत चैतन्य इस सम्पूर्णका अंश है पर ऐसा अंश है जो अपनेको पृथकू ही समझता है। तथापि यह जो कुछ है उसका अधिकांश इसमें विश्वचैतन्यसे ही आता है। पर विश्वचैतन्य और इसके बीच में विभेदक अज्ञानकी एक दीवार खड़ी है। यह दीवार ढह जाय तो यह तुरत विश्वात्माको जान ले, विश्वप्रकृति के चैतन्यको जान ले और

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