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आधारके लोक और अंग
 

कारण, परम सत्य से वियुक्त नहीं हुई है बल्कि प्राणचेतना और मनश्चेतना भी।

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संस्कृत भाषामें 'जीव' पदके दो अर्थ हैं—एक 'प्राणी'[१] और दूसरा वह आत्मा जो व्यष्टिगत हुआ है जो प्राणीको उसके जन्म-जन्मान्तरव्यापी विकसनक्रममें धारण किये रहता है। इस पिछले अर्थका द्योतक पूर्ण पद 'जीवात्मा' है—जीव अर्थात् प्राणीका आत्मा, प्राणीका सनातन स्वरूप। गीतामें 'ममैवांशो जीवभूतः सनातनः' जो कहा है, इसमें 'अंश' पद रूपक के तौरपर है, इसका यह मतलब नहीं कि यह ईश्वरसे विच्छिन्न या पृथक्कृत अंश है जैसा कि तुम्हारे fragmentation, (विच्छिन्न पृथक्कृत) पदसे सूचित होता है, यह पद अर्थ ही बदल देता है; भिन्न-भिन्न जो रूप हैं उनके लिये यह पद प्रयुक्त हो सकता है पर उनके अन्दर जो आत्मा है उनके लिये नहीं। और फिर ईश्वरका जो बहुत्व है वह सनातन सत्ता है, सृष्टिके पहलेसे है। जीवात्माका ठीक वर्णन तो यह होगा कि, 'जीवात्मा वह बहुविध ईश्वर है जो यहाँ प्राणी के व्यष्टिगत आत्माके रूपमें प्रकट होता है।' जीवात्मा तत्त्वतः विकार्य या विकसनशील नहीं है, उसका निज


  1. सामान्य बोलचालमें भी, किसी प्राणीको कोई मारता हो तो, यह कहा करते है कि, "क्यों ईश्वरके जीवको मारते हो?"

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