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आधारके लोक और अंग
 

जो सत्ता बाह्य भाग में है उसीमें सारी परेशानी और अज्ञान है। परन्तु यदि वास्तविक आन्तर सत्ता अचल रहे और तुम उसमें स्थित रहो तो परेशानी और अज्ञान केवल बाह्य भागमें ही रह जायँगे; इस हालतमें अपनी सत्ताके इन बाह्य भागोंपर अधिक शक्तिमत्ता के साथ अपना बस चल सकता है और इन्हें भी मुक्त और सिद्ध किया जा सकता है।

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'मन' शब्दका प्रयोग जिस अर्थमं सामान्यतः होता है उसमें मनुष्यकी सारी चेतना, निर्विशेषभाव से आ जाती हैं, कारण मनुष्य मनोमय पुरुष है और वह प्रत्येक पदार्थको मानसाकृत कर लेता है; पर इस योगकी परिभाषा में 'मन' और 'मनोमय' शब्द प्रकृतिके उसी भागके सूचक हैं जिसका सम्बन्ध अभिज्ञा और बुद्धि, भावना, मानसिक या बौद्धिक संनिकर्ष, पदार्थविषयक बौद्धिक प्रतिक्रिया, वास्तविक मानसी वृत्तियाँ और आकृतियाँ, मनोमय दर्शन और मनस्संकल्प इत्यादि से है जो उसकी बुद्धिके अंश हैं। प्राणमय प्रकृति-को मनोमय प्रकृति से पृथक् करके जानना चाहिये, यद्यपि प्राण में भी एक प्रकारका मन घुसा रहता है; प्राणमय प्रकृति जीवन प्रकृति है जो वासना, वेदना, अनुभूति, प्राणगत, मनोवेग, कार्यकरणशक्ति, कामसंकल्प, वासनामय अन्तः- करणकी प्रतिक्रिया और अहंता ममताके तथा तत्सम्बन्धी

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