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योगप्रदीप
 

कहते हैं जो सर्वथा दबा हुआ-सा रहता है, जिसमें कोई जागता हुआ चेतन या सुसम्बद्ध विचार, संकल्प या प्रतीति अथवा व्यवस्थित प्रतिक्रिया नहीं होती पर फिर भी जो सब पदार्थोंके संस्कार बेजाने ग्रहण करता और अपने अन्दर संचित रखता है और इसी कारणसे इस भागमें से भी सब प्रकारकी उत्तेजनाएँ, अविरत अभ्यस्त वृत्तियाँ, बेढंगे तौरपर या विचित्र रूप धारण कर स्वप्नमें या जागतेमें उठ सकती हैं। ये संस्कार असम्बद्ध और अस्तव्यस्त रूपसे स्वप्नमें तो प्रायः उठा ही करते हैं पर जागतेमें भी उठते हैं। जागतेमें इनका स्वरूप पुराने विचारों या पुराने मनोगत प्राणगत शरीरगत अभ्यासोंका यन्त्रवत् पुनरा-वर्तन-सा होता है अथवा ऐसे संवेदनों, कार्यों और भावोंका अज्ञात-सा उत्तेजन होता है कि जो संवेदन, कार्य या भाव अपने ज्ञात विचार या कृत संकल्पमें नहीं होते, यही नहीं बल्कि जो अपने विचार और संकल्पगत प्रतीति, इच्छा और अनुमतिके विरुद्ध भी होते हैं। इस अवचेतन भागमें एक छिपी-सी मन-बुद्धि होती है जिसमें हमारे पूर्वार्जित कर्मसंस्कार भरे और बद्धमूलसे जमे रहते हैं; इसमें छिपा-सा प्राण भी होता है जिसमें अभ्यासगत वासनाओं, संवेदनों और प्राणगत प्रतिक्रियाओंके बीज भरे रहते हैं; इसमें एक अति ही गुप्त-सुप्त तमोवृत अन्नमय कोष भी होता है जो शारीरिक अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाले बहुत बड़े कार्य-

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