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आधारके लोक और अंग
 

भिमानी जीवको बन्धमुक्त कर विश्वव्यापकत्व या निरपेक्ष और परात्पर सत्ताकी स्थितिमें लाकर बिठा सकती है।

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हमारे योगसाधनक्रममें चक्रोंसे प्रत्येकका एक-एक निश्चित आध्यात्मिक उपयोग और एक-एक सामान्य कार्य भी है और यही इनकी विशिष्ट शक्तियों और कार्यों का मूल है। मूलाधार चक्र शरीरका, अवचेतनातक, नियामक है; स्वाधिष्ठान निम्नतर प्राणका नियामक है; नाभिपद्म या मणिपूर उच्चतर प्राणका नियामक है; हृत्पद्म या अनाहत चित्तका नियामक है; विशुद्ध वैखरी और विषयानुकारी बुद्धिका नियामक है; भ्रमध्य अर्थात् आज्ञाचक्र कर्मात्मक मन, संकल्प, दृष्टि, मानसिक निर्माणका नियामक है; ऊर्ध्वस्थित सहस्रदल उच्चस्तरा विचारवती बुद्धिका नियामक है, इसी सहस्रदलमें इसके भी ऊपर आलोकित बुद्धि है और फिर सबके ऊपर यह चक्र अन्तर्ज्ञानकी ओर खुला हुआ है। इसी स्थान से होकर अधिमानसका शेष अंगों के साथ सम्बन्ध रहता है अथवा यह अधिमानस उत्प्लावित होकर शेष अंगोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध भी कर लेता है।

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इस योग में अवचेतना हम अपनी सत्ताके उस भागको

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