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हमारा लक्ष्य
 

नहीं रहतीं जबतक कि मानवी चेतना रूपान्तरित न हो जाय—इन अनुभूतियों को आत्मभूत करनेमें कुछ समय लगता है। जब जीव स्वयं अबोध-सा रहता है तब आत्मसात् करनेकी यह क्रिया, परदेके अन्दर, ऊपरी आवरणसे छिपकर भीतर, हुआ करती है और ऊपरी आवरणकी चेतनाको केवल मूढ़ताकी-सी स्थितिका अनुभव होता है और ऐसा भी प्रतीत होता है कि जो कुछ दिव्य भावसा पहले प्राप्त हुआ था वह भी चला गया; पर जब जीव जागता है, उसकी चेतना जाग उठती है, तब वह देख सकता है कि किस प्रकार भीतर ही भीतर आत्मसात्क रनेकी क्रिया हो रही है, और कोई भी दिव्य भाव पाया हुआ नष्ट नहीं हुआ है, बल्कि जो दिव्य भाव उतर आया था वह अब स्थिर होकर बैठा है।

जिस विशालता, अपार स्थिरता और निश्चल नीरवतामें डूबे रहने की स्थितिका साधकको अनुभव होता है वही वह चीज है जिसे आत्मा या शान्त ब्रह्म कहते हैं। इसी आत्मा या शान्त ब्रह्मको पाकर उसीमें लीन होकर रहना ही कई प्रकार के योगोंका ध्येय होता है । परन्तु हमारे योगमें तो यह भगवत्सत्ताकी अनुभूतिका तथा जीवके उस भागवत चैतन्यको, जिसे हम दिव्यीकरण कहते हैं, क्रमशः प्राप्त होनेका, केवल प्रथम सोपान मात्र है ।

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