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हमारा लक्ष्य
 

सत्यता कम होती जाती है और विज्ञानमय लोक में इसकी कोई सत्ता रह ही नहीं जाती। अन्यान्य सत्य रहते हैं, पर पूर्ण स्थितिमें उनका स्वरूप, महत्त्व और स्थान बदल जाता है। व्यक्त और अव्यक्तका भेद या तारतम्य अधिमानस में सत्य भासित होता है—विज्ञानमें इनकी भिन्न सत्ता नहीं है, वहाँ व्यक्त और अव्यक्त दोनों अभिन्नरूपसे एक हैं। पर अधिमानस-की स्थिति साधकर उसमें जो पूर्ण होकर न रहा हो वह विज्ञानकी सत्ताको पहुँच ही नहीं सकता। मनुष्यका मन तो ऐसा है कि इसे कुछ न कर सकनेवाला व्यर्थका दर्प हुआ करता है और उस दर्पमें आकर वह भिन्न-भिन्न स्थितियोंके सत्यको छाँटने लगता और अन्य सब सत्योंको असत्य, अलीक जानकर, केवल उस एक महत्तम सत्यकी और उछल पड़ता है जिसे उसने स्वरूपतः तो नहीं, केवल अनुमानसे जाना है पर यह एक प्रकारका उच्चपदाभिलाष और सगर्व प्रमाद मात्र है। बात यह है कि जो कोई ऊपर चढ़ना चाहता है उसे एक-एक सीढ़ी चढ़ना होगा और हर सीढ़ी- पर मजबूती से पैर रखकर, स्थिर होकर ऊपर उठना होगा, तभी वह शिखरतक पहुँच सकता है।

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निम्न प्रकृति और उससे अपने मार्गमें आनेवाली

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