कुछ भाव पाये जाते है। हर एक पक्ष को पूरे तौर से समझने और उससे आनन्द उठाने के लिए अपने को तैयार कीजिए क्योंकि इसमें भाग लेने वाले सभासदों की वक्तृताएँ गूढ और सारगर्भित हैं। उस समय के राजाओं में से जितने भी युधिष्ठिर के पक्ष में थे, वे सब यहाँ विद्यमान हैं। कृष्ण भी अपने पिता और माता सहित यहाँ बैठे दीख पड़ते हैं। सबसे पहले कृष्ण ही बोले
"युधिष्ठिर की आपत्कथा आप सब महाशयों पर विदित है। दुर्योधन ने युधिष्ठिर और उसके भाइयों का नाश करने के लिए जो-जो युक्तियाँ समय-समय पर की है, वह भी आप सब भली भाँति जानते है। युधिष्ठिर ने जिस प्रकार उसका सामना किया तथा लड़ाई और सन्धि मे भी धर्माचरण किया, वह भी आपको ज्ञात है। सारे आर्यावर्त में किसी की शक्ति नहीं जो अर्जुन और भीम का सामना करके युद्ध मे उन पर जय पा सके। तथापि युधिष्ठिर अधर्म, अन्याय और अनीति से किसी का राजपाट नहीं लेना चाहते। अन्याय से यदि उन्हें स्वर्ग का राज्य भी मिले, तो वह उसे अंगीकार नहीं करेंगे और न्याय से यदि उन्हें एक गाँव मिले तो वह उसी पर संतोष कर लेंगे। युधिष्ठिर और उनके भाइयों ने धृतराष्ट्र से जो-जो प्रतिज्ञाएँ की उनका एक एक अक्षर पूरा कर दिखाया, इसलिए अब धृतराष्ट्र को उचित है कि उनका राजपाट उन्हें लौटा दे। पर हम नहीं कह सकते कि दुर्योधन का आन्तरिक अभिप्राय क्या है, इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि एक माननीय, सदाचारी तथा धर्मात्मा दूत उसके पास भेजा जाये, जो दुर्योधन का अभिप्राय जानकर उसे इस बात के लिए राजी करे कि वह युधिष्ठिर का आधा राजपाट उसे लौटाये और उससे मेल कर ले।"
कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम ने उस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। साथ ही इस बात के लिए दुःख प्रकट किया कि युधिष्ठिर ने जुए के दाव में अपना सारा राजपाट गँवा दिया। उसने भी कौरवों से मेल कर लेने पर ही जोर दिया।
इन दोनों वक्तृताओं को सुनकर राजकुमार सात्यकि नामक यादव उठा और बोला, “संसार में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं, वीर और कायर। जिस वृक्ष में फल लगते है उसको कोई-कोई शाखाएँ मुरझाई होती हैं और उनमें कभी फल नहीं लगते। मुझे इन दोनो के कथन पर दुःख नहीं किन्तु मुझे उन पर खेद होता है, जो मौन साधे उनकी वक्तृता को सुन रहे हैं। क्या कोई विचारवान् पुरुष मान सकता है, कि जुआ खेलना युधिष्ठिर का अपराध था? क्षत्रिय का धर्म है, यदि उससे कोई वरदान माँगे तो वह उससे मुँह न मोड़े! दुर्योधन ने चालाकी से ऐसे पुरुषों को युधिष्ठिर से बाजी खेलने के लिए आगे किया जो इस विद्या में निपुण थे। युधिष्ठिर धर्मानुसार खेलता रहा और हार गया। इसमें उसका कोई अपराध नहीं। उसने अपने वचन को अन्त तक पूरे नौर से निभाया। क्या ऐसी दशा में अब, यह उचित है कि वह दुर्योधन से भिक्षा माँगे और निर्बल या अभ्यागत के समान सन्धि का प्रार्थी हो।
"फिर हम जानते हैं कि दुर्योधन कितना दुराचारी और झूठा हैं। क्या आपने नहीं सुना, यद्यपि युधिष्ठिर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष का वनवास-पूरा कर दिया...पर दुर्योधन अब यह कहता है कि तेरहवें वर्ष में हमने उनको पहचान लिया। भीष्म और द्रोण उसे बहुत