मर्यादा है कि जो शत्रु पर जय पाकर भी उसे छोड़ दे वह उसका गुरु हो जाता है। कृष्ण न केवल महाबली क्षत्रिय हैं जिन्होंने हजारों क्षत्रियों को स्वतंत्रता प्रदान की है, वरन् वे वेदों के ज्ञाता और विद्वान् है और इसलिए इन दोनों गुणों से संयुक्त होने से हम सबमें से वे ही गौरवान्वित होने के योग्य है।[१]
पुनः सहदेव कहने लगा, "यदि इस सभा में कोई पुरुष द्वेषवश कृष्ण के तेज और मान को सहन नहीं कर सकता तो उसके सिर पर मेरा पैर। यदि वह वीर है तो मैदान में आवे, नहीं तो सबको उचित है कि भीष्म के निर्णय को स्वीकार करें।" निदान ऐसा ही हुआ। पर जब पाण्डवों ने कृष्ण को भेंट चढ़ाई तो शिशुपाल फिर भीष्म और कृष्ण को बेतुकी बातें सुनाने लगा, जिसका अंत इस प्रकार हुआ कि दोनों दलों में विवाद आरम्भ हो गया। एक ओर पाण्डव पक्ष वाले कृष्ण की स्तुति करते थे और दूसरी ओर शिशुपाल उनके अवगुणों का वर्णन करता था। सारांश यह कि इस प्रकार कुछ समय तक विवाद चलता रहा। बिचारा युधिष्ठिर दुखित हो दोनों पक्षों को संबोधित कर रहा था, पर उसकी कोई सुनता ही नहीं था। निदान उसने भीष्म से कहा कि पितामह! इस झगड़े को अब आप ही शान्त कीजिए। भीष्म ने उत्तर दिया कि जब शिशुपाल और उसके पक्ष वाले समझाने से भी नहीं मानते तो फिर इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि यदि उनमें से कोई अपने आपको कृष्ण से अधिक शक्तिशाली समझे तो वह उनसे युद्ध करे और परिणाम देख ले। आप ही निर्णय हो जाएगा कि कृष्ण इस मान के योग्य हैं या नहीं। अब शिशुपाल ने जी खोलकर कृष्ण और भीष्म को गालियाँ दी और अन्तत: बोला, "अच्छा, यदि कृष्ण वीर है तो मेरे साथ युद्ध करे।" युद्ध में कृष्ण की जय हुई और शिशुपाल मारा गया। शिशुपाल के सारे पक्षपाती अपना-सा मुँह लेकर रह गये। महाराज युधिष्ठिर ने पहले शिशुपाल का दाह संस्कार किया फिर उसके पुत्र को राजतिलक देकर राजसूय यज्ञ रचाया। यज्ञ की समाप्ति पर जब सब अतिथि विदा हो चुके तो कृष्ण भी युधिष्ठिर और द्रौपदी की आज्ञा से द्वारिका लौट आये।
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वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा।
नृणांलोके हि को ऽन्यो ऽस्ति विशिष्ट केशवाट्टते॥