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90/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


पर भीम ने कहा, “यह नहीं मानता कि मैं थक गया हूँ, और अभी लड़ने को मेरे सामने खड़ा है। अतएव मैं भी किस तरह हट सकता हूँ ।" लड़ाई फिर होने लगी और भीम ने जरासध को उठाकर इस जोर से भूमि पर दे मारा कि उसका काम वहीं तमाम हो गया।

जरासंध के मरते ही कृष्ण ने भीम व अर्जुन को रथ पर सवार कराया और आप सारथी बनकर दुर्ग में प्रवेश किया। उन्होंने सबसे पहले उन राजाओं को बन्दीगृह से छुटकारा दिलाया जो वर्षों से उसमें पड़े सड़ रहे थे। फिर उन सबको अपने साथ लाकर नगर से बाहर एक शिविर में रखा।

इन सब राजाओं ने कृष्ण के समक्ष हीरे आदि रत्नों की भेंट चढ़ाई और प्रसन्नतापूर्वक अपने लिए कुछ सेवा का आदेश करने की याचना की।

इस पर कृष्ण महाराज ने उत्तर दिया, महाराजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते है। आपको चाहिए कि उनको इस यज्ञ में सहायता देकर उनके प्रति अपनी भक्ति को सिद्ध करे। इस बात को सुनकर सारे राजाओं ने एकमत होकर इसे स्वीकार किया। जरासंध का पुत्र सहदेव भी भेंट लेकर उपस्थित हुआ और महाराज कृष्णचन्द्र ने प्रसन्न होकर सबके सामने उसका राजतिलक कर दिया और पिता की गद्दी पर बिठाया। इन कामों से निश्चित होकर वे वहाँ से चले आये।

यह सारा प्रसंग प्राचीन भारतवर्ष की युद्धकला की जानकारी देता है।

(1) महाराज कृष्ण का स्नातक के वेष में फूल माला पहनकर जरासंध के दरबार में जाना।

(2) सदर फाटक से नगर में न प्रवेश करना।

(3) जरासंध की पूजा न लेना और निर्भय होकर अपने विचार प्रकट करना।

(4) जरासंध का भी उनकी इस कार्यवाही पर क्रुद्ध न होना और युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लेना।

(5) जरासंध के मारे जाने पर उसके पक्ष वालो का अपनी हार मानना और कृष्ण आदि पर चढ़ाई न करना।

(6) कृष्ण का जरासंध के पुत्र को गद्दी पर बिठाना, इत्यादि ऐसी घटनाएँ है जो आर्यजाति की उच्च सभ्यता को भली भाँति प्रमाणित करती है।