युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन और भीम कृष्ण के साथ अपनी राजधानी से निकले। हम पूर्व लिख चुके है कि कृष्ण का अभिप्राय था कि जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए तैयार किया जाय। इसके लिए उन्हे यह आवश्यक लगा कि वे तीनों जरासंध के यहाँ जावें। परन्तु यदि वे अपने यथार्थ वेष में गये तो उन्हें राजधानी के भीतर जाने की आज्ञा भी नहीं मिलेगी, इसलिए इन तीनों ने क्षत्रिय का रूप छोड़ स्नातक का वेष धारण किया और गिरिराज की नगरी की ओर चले। जब नगर के निकट पहुंचे तो सोचने लगे कि शत्रु के घर मुख्य मार्ग से जाना और फिर उस पर वार करना धर्म-मर्यादा के विपरीत है। इसलिए यह निश्चय किया, कि किसी चोर द्वार से अन्दर घुसना चाहिए। गिरिराज की नगरी के एक ओर एक ऊँची पहाड़ी खड़ी थी जो रक्षा के लिए दीवार का काम देती थी। ये तीनों उस पहाड़ी पर चढ़े और उस पर से होकर शहर में जा घुसे। स्नातक ब्राह्मण के वेष में फूलों की माला गले में पहन, देह में सुगन्धित तेल मलकर राजद्वार पर जा पहुँचे और महाराज जरासंध से भेंट करने की इच्छा प्रकट की। महाराज ने जब सुना कि तीन स्नातक ब्राह्मण मेरे द्वार पर आये हैं तो वह शीघ्र अपने महलों से नीचे उतरा और सम्मानपूर्वक उनके सामने आ खड़ा हुआ। इन्हें देखकर वह चकित हो गया। यद्यपि इनका वेष स्नातक ब्राह्मणो का था, पर इनके प्रत्येक अंग-प्रत्यंग से क्षात्रत्व झलक रहा था। वह भी चतुर था, उसने अपना भाव प्रकट होने नही दिया और पूजा करने के लिए झट आगे बढा। उसके आगे बढ़ते ही दूसरी ओर से उत्तर मिला कि हम आपकी पूजा को स्वीकार नहीं कर सकते। अब तो राजा का सन्देह और भी पक्का हो गया और उसने उनसे पूछा कि वे कौन हैं, और क्यों इस वेष में उसके सामने आकर भी उसकी पूजा ग्रहण नहीं करते है।
कृष्ण बोले, “हे राजन्! प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि वह स्नातकों के धर्म का अनुगामी बने। हम यद्यपि इस समय फूलो का हार पहने है, परन्तु हम इस समय स्नातक धर्म मे दीक्षित हैं। तथापि हम तेरे शत्रु हैं और शत्रुता के भाव से ही तेरे सामने आये हैं। इसीलिए न तो हम मुख्य द्वार से तेरे नगर से आये और न हमने तेरी पूजा स्वीकार की, अपितु शत्रु के समान पहाड़ी से नगर में उत्तरे हैं।" जरासंध यह उत्तर सुनकर बोला, “हे महानुभाव। जहाँ तक मुझे याद आता है मैंने कभी तुम्हारी कुछ हानि नहीं की है, फिर तू मेरा शत्रु क्यो बना ऐसा न हो कि तू किसी भ्रम में पड़ा से मैं तो सदा धर्म के अनुकूल ही काम करता