इसके पश्चात् अपने समय के क्षेत्रियों की दुर्गति का वर्णन करते हुए कहा कि क्षत्रियों में राजसूय यज्ञ करने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आई है। केवल वहीं पुरुप राजसूय यज्ञ कर सकता है जो सारे राजाओं का महाराजा हो और चक्रवर्ती राज्य का स्वामी हो । मगध देश का राजा जरासंध स्वेच्छाचारी और स्वतंत्र है। अनेक राजा-महाराजा उसके अधीन है तथा उसके कारागार में बन्द पड़े है। जब तक जरासंध का विनाश नहीं हो जाता तब तक आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते। जरासंध ऐसा प्रबल और प्रतापी है कि सभी देशों के राजा उसके सामने सिर झुकाते है। यहाँ तक कि हमें भी उसी के भय से अपना देश त्यागना पड़ा। सारे देशो के वीर योद्धा उसकी सेना में एकत्र हैं फिर यह कैसे संभव है कि उसके जीते जी आप इस यज्ञ को कर सकें! यह किसी प्रकार भी संभव नहीं कि वह अपने होते हुए आपको राजसृय यज्ञ करने दे। अतएव यदि आपकी इच्छा यज्ञ करने की ही है तो पहले उसको पराजित कर उन राजाओं को छुटकारा दिलाइये जो उसके बन्दीगृह में हैं। इससे आपको कई पुण्य होंगे। प्रथम तो उस पापी का विनाश कर अनेक असहाय बन्दियों को जीवनदान देने का पुण्य होगा, उसरे आपको महान् यश प्राप्त होगा और आप निर्भय होकर यज्ञ कर सकेंगे।
इस कथन को सुनते ही युधिष्ठिर की सारी इच्छाओं पर पानी पड़ गया। वे फिर कहने लगा, “हे कृष्ण! यदि आप जैसे समर्थ पुरुष भी जरासंध से डरकर भाग गये तो मेरी क्या सामर्थ्य है जो मै उसका सामना कर सकूँ? वह केवल बलवान ही नहीं है, वरन् अन्यायी और अत्याचारी भी है। इसके अतिरिक्त इससे अशान्ति फैलने की भी संभावना है जिसे मैं पसन्द नहीं करता।" राजा के इन कायरतापूर्ण वचनों को सुनकर भीम को जोश आ गया और वह कहने लगा, “महाराज! इसमें सन्देह नहीं कि जो पुरुषार्थहीन और निर्बल है तथा जिसके पास युद्धसामग्री नहीं, यदि वह अपने से सबल शत्रु से लड़ाई ठानेगा तो मुँह की खाएगा ही। पर जो राजा सावधान और नीति से युक्त है, चाहे वह निर्बल भी है, तथापि अपने शत्रु पर विजयी हो जाता है। आपके राज्य में कृष्ण के समान दूसरा नीति को जानने वाला नहीं है। बल ने कोई मेरी बराबरी नहीं कर सकता और अर्जुन तो दुर्जय है ही। जैसे तीन प्रकार की अग्नि के मिलने से यज्ञ होता है वैसे ही इन तीनो के मिल जाने से निश्चय ही जरासंध का नाश होगा।"
भीम के इस कथन को सुनकर कृष्ण बोले, “अल्पबुद्धि या विचारहीन मनुष्य बिना पारणाम को विचारे अपनी आकाक्षाओ को पूरा करने में लग जाते हैं, पर फिर भी कोई शत्रु इस स्वेच्छाचार चा अल्पबुद्धि के कारण उस पर दया नहीं करता। इसलिए कोई काम बिना विचारे नही करना चाहिए। इससे पहले कृतयुग में पाँच महाराजाओं ने अपने-अपने गुणों से चक्रवर्ती राजा की उपाधि पाई। किसी ने कर छोड़ देने से, किसी ने दया और न्याय से प्रजा को वश मे करने से, किसी ने अपने तपोबल से और किसी ने अपने बाहुबल से। परन्तु तुम एक गुण से नहीं, वरन् इन सब गुणो से चक्रवर्ती राजा कहलाने के अधिकारी हो। तू बड़भांगी और प्रतापी है जो अपनी प्रजा की हर तरह से रक्षा करता है। तू क्षमाशील और बुद्धिमान् भी है। पर दूसरा राजा जरासंध भी इस उपाधि का दावेदार बना है। उसके बल की थाह इसी से लग