व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साँईदास जी (आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री) ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि हमने बहुत समय तक इन्तजार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ। मै उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे तथा मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि मै तो उनके साथ हूँ। मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मँगवाया और मेरे सामने रख दिया। मै दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हे जाने न दूँगा। मैने फौरन हस्ताक्षर कर दिये। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी उसका वर्णणन मै नहीं कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गई है। उन्होंने एकदम पं० गुरुदत्त को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदनसिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और पं० गुरुदत्त को मंच पर खड़ा किया। हम दोनों से व्याख्यान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाईं। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर को लौटा।[१]
यह है लालाजी के आर्यसमाज में प्रवेश की कथा। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द (तत्कालीन लाला मुंशीराम) को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर से एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चय हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये, जिसमे वैदिक साहित्य, संस्कृत तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजो और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 मे जब इस शिक्षण संस्था की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर मे डी०ए०वी० कॉलेज, लाहौर के महान् स्तम्भ बने।
वकालत के क्षेत्र में
लाला लाजपतराय ने एक मुख्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवासस्थान जगराँव मे ही वकालत आरम्भ कर दी थी; यह कस्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्यय के बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं थी, अत: वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान हरियाणा, हिमाचल तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होने 1885 में, वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1886 में वे हिसार आ
- ↑ लाला लाजपतराय को आत्माकथा नवयुग ग्रंथमत्स लाहौर से प्रकाशित 1932