जब कंस के वध की सूचना उसकी रानियों तक पहुँची तब उन सबने विलाप करना आरम्भ किया। उधर उग्रसेन और कंस की माता भी रो-रोकर कोलाहल मचाने लगी। राजमहल के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के चेहरे पर भय और शोक दिखाई पड़ रहा था। कंस के इस दुःखान्त परिणाम को देखकर लोग उसकी अनीतियों की बात तो भूल गए और उसके रक्त से भरे मृत शरीर को देख लगे रोने तथा विलाप करने। घृणा का बदला लेने का भाव तो जाता रहा; उसकी जगह उनमें दया और दुख का संचार होने लगा। कृष्ण को भी इस शोक में सम्मिलित होना पड़ा। इसके बाद कृष्ण और बलराम वसुदेव और देवकी की और बढ़े और अपना माथा उनके पैरों पर रख दिया। एक ओर तो उग्रसेन और उसकी पत्नी का अपने पुत्रों की मृत्यु पर विलाप और दूसरी ओर वसुदेव तथा देवकी का अपने बिछड़े हुए पुत्रों से मिलाप। ये दोनो ऐसे दृश्य थे जो एक ही सभामण्डल में लोगों के हृदय में विपरीत भाव उत्पन्न कर रहे थे। इस बारे दृश्य में लोगों को परमात्मा के अटल न्याय की रेखा दिखाई देती थी। जो दुख और सन्ताप कंस तथा सुमाली के मृत शरीर के देखने से होता था वह तत्काल वसुदेव और देवकी के विह्वल हृदय के नोचे दब जाता था।
कंस की वह कार्यवाही लोगों के सामने फिर धूमने लगी जो उसने वसुदेव और देवकी के बच्चों का वध करने के लिए की थी। कृष्ण के माता और पिता के आनन्द में सारी सभा आ मिली। यादव वंश के सब छोटे-बड़े एक-एक करके कृष्ण के पैरों पर आ पड़े और सबने उनसे राज्य तिलक ग्रहण करने की प्रार्थना की। सारी सभा इन शब्दों से गूंज उठी कि कृष्ण मथुरा की गद्दी पर बैठे और राज्य करें। युवा कृष्ण के लिए यह कड़ी परीक्षा का समय था। एक ओर तो राजपाट और सारे ऐश्वर्य उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे। सारे भाई-बन्धु और प्रजा उनसे आग्रह कर रही थी कि कृष्ण राजपाट अंगीकार करें। दूसरी ओर उनके हृदय में न्याय और धर्म के उच्च भाव एकत्र हो रहे थे। उनके भीतर से यह आवाज आई कि मुझे इस गद्दी का अधिकार नहीं लेना। मैने कंस को इसलिए नहीं मारा कि उसका राजपाट स्वयं भोगूँ। यदि मैंने इस समय गद्दी स्वीकार कर ली तो संसार को यह कहने का अवसर मिलेगा कि राज्य के लालच में आकर मैंने कंस का वध किया, पर मेरे हृदय में इसका कभी विचार भी नही हुआ। इस विचार के आते ही कृष्ण ने ठान लिया कि नहीं, मैं गद्दी नही लूँगा। गद्दी उग्रसेन की है जिसे दुष्ट कंस ने अन्याय और बल से छीना था। उग्रसेन ने भी बहुत अनुरोध किया कि मैं तो इससे प्रसन्न हूँ कि आप गद्दी पर बैठे। पर कृष्ण ने एक न सुनी और सबके सामने