जाति को नवीन वेदान्त तथा वैराग्य से बचाने का प्रयत्न करती है वैसे ही दूसरी ओर यूरोप
के भौतिक (Material) दर्शन से बचने की चेतावनी भी देती है, परन्तु मनुष्य में यह दोष
है कि वह सदा अति की ओर झुकता है, जिसे संस्कृत में अति दोष कहते है। हमारी जाति
मेें यह दोष इस समय प्रबल हो रहा है और इसी से हमारे नवशिक्षित युवकगण अपने आचरण
को मध्यम श्रेणी में नहीं रख सकते। ऐसे मनुष्यों के लिए श्रीकृष्ण की जीवनी तथा उनका दर्शन
बड़ा उपयोगी और लाभकारी होगा। परन्तु खेद है कि गीता और महाभारत को पढ़कर लोग
कृष्ण की शिक्षा के भाव को समझने में गलती करते है। उससे वैराग्य, योग तथा नवीन वेदान्त
की सिद्धि करके लोक-परलोक को लात मार, बाल-बच्चों को छोड़ वस्त्र रँगा लेते हैं। हाय !
वह यह नहीं समझते कि जिस कृष्ण ने अर्जुन को लड़ने पर तत्पर किया, जिसने लड़ाई की
समाप्ति पर युधिष्ठिर को (उसकी इच्छा के प्रतिकूल) राज्य करने पर मजबूर किया, जिसने स्वयं
विवाह किया और बाल-बच्चे उत्पन्न किये और अपने जीवन का अधिकांश भाग सांसारिक
व्यवसाय में व्यतीत किया, जिसने अपने शत्रुओं से बदला लिया, जिसने दुष्ट पापात्माओं का
नाश किया और जिसने दीन-दुखियों की सहायता की, जो स्वयं संसार में रहकर सांसारिक धर्म
का पालन करता हुआ उत्तम श्रेणी की आत्मोन्नति को प्राप्त हुआ था, उसकी शिक्षा से हम केसे
यह भावार्थ निकाल सकते हैं कि हमारे लिए यही कल्याणकारी है कि हम अपने बाल-बच्चों तथा
माता-पिता को त्यागकर वन में चले जायें या अपना सांसारिक धर्म पालन किए बिना योगसाधन
में लग जायें? कृष्ण की शिक्षा का एकमात्र सांराश यह है कि मनुष्य अपने कर्तव्य को (चाहे
वे सांसारिक हों या धार्मिक) सचाई, दृढ़ता तथा शुद्धाचरण से पालन करें। इसी से उसे सत्य
ज्ञान मिलेगा। इसी से परम मोक्ष भी प्राप्त होगा। कृष्ण ने युद्ध-क्षेत्र में बैठकर अर्जुन के लिए
यह बात परम कर्तव्य ठहराई कि वह अपने क्षात्रधर्म के पालन हेतु अपने हाथों से लाखो जीवों
का बध करे, वरंच प्रयोजन पड़ने पर अपने वंश वालों का भी शिर छेदन करे। उसने अपने
हाथो से बहुत-सी लड़ाइयो में शस्त्र चलाये और रक्त बहाया। ऐसा व्यक्ति क्या इस बात की
शिक्षा दे सकता है कि बीसवीं शताब्दी के पतित हिन्दू (जो अपने कर्म से न पूर्ण ब्राह्मण है
और न पूर्ण क्षत्रिय) अपने बाल-बच्चों को अनाथ छोड़ और जातीय कर्तव्यों पर पदाघात कर
बिना ब्रह्मचर्य पालन किए, बिना गृहस्थ आश्रम को निबाहे, बिना यथाक्रम वेदशास्त्र को पढ़े और
बिना अपने वर्णाश्रम के कर्तव्य का पालन किए, योगसाधन में तत्पर हो जायें तथा स्वयं ब्रह्म
बनने की उत्कट कामना में वन का रास्ता ले? कृष्ण की शिक्षा के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का
कर्तव्य है कि जब तक उसे ब्राह्मण पदवी का अधिकार प्राप्त न हो तब तक वह अपने शत्रुओं
के साथ युद्ध करे। यदि धर्म, कर्म, न्याय, सत्यता, इत्यादि के लिए दूसरों के सर कुचलने
का अवसर आ पड़े तो अपनी जान जोखिम में डालकर भी उससे मुख न मोड़े। हम कर्तव्य
के पालन करने में मिथ्या दया या वैराग्य को पास तक न फटकने दे। यदि प्रत्येक पीड़ित मनुष्य
अपनी पीड़ा के हेतु दया का भाव दिखावे और वैराग्य को काम मे लावे तो एक दिन संसार
से न्याय बिलकुल ही उठ जाएगा। ऐसे अवसर पर दया या वैराग्य का भाव दिखाना एक
प्रकार की कायरता है। ऐसे अवसर पर किसी का यह कहना कि जब कुछ न बन पड़ा तो
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भूमिका 41