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40 योगिराज श्रीकृष्ण
 


में मूर्तिपूजा या अवतारों के सिद्धान्त का मानने वाला कोई भी नहीं था। हम इस पुस्तक के अन्तिम भाग में इस बात पर विचार करेंगे कि कृष्ण का चरित हमारे इस मन्तव्य की कहाँ तक पुष्टि करता है तथा पाठक भी इसके अध्ययन से उपयुक्त सम्मति स्थिर कर सकेंगे।

सहृदय पाठक ! हम इन पृष्ठों में आपके सम्मुख एक महापुरुष का जीवन पेश करते है। श्रीकृष्ण यद्यपि अवतार न थे, मनुष्य थे, परन्तु मनुष्यो की सूची में ऐसे श्रेष्ठतम आचरण के मनुष्य थे जिनको संस्कृत विद्वानों ने 'मर्यादा पुरुषोत्तम' की पदवी दी है। वह अपने समय के महान् शिक्षक थे, योद्धा तथा विद्यासम्पन्न थे। उनकी जीवनी हमारे लिए आदर्श रूप है। हम उनकी शिक्षा से बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। हमारी राय में आधुनिक छात्रमण्डली को उनकी जीवनी ध्यानपूर्वक पढ़नी चाहिए, क्योंकि यूरोप का नास्तिक दर्शन बहुत-से हिन्दू युवकों के चित्त को चलायमान करके उनको हिन्दू धर्म के यथार्थ तत्त्व से पराङ्मुख कर रहा है और इनके दल के दल यूरोपियन जीवन-दर्शन के पीछे भागे जा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अच्छे स्वादिष्ट पकवान खाने, सुन्दर वस्त्र-भूषण पहनने तथा फैशनेबल सवारियों में बैठकर सुख भोग से दिन काटने के अतिरिक्त जीवन का कुछ और उद्देश्य नहीं। आत्मा को वे कोई चीज नहीं समझते, धर्म को वे घृणा की दृष्टि से देखते है तथा यावत् सांसारिक आपत्तियों को इसी का कारण समझते हैं। वे इसी में भारतवर्ष का हित समझते है कि इसका सर्वनाश कर दिया जाय और जनसाधारण के हितार्थ एक लोकपालित राज्य स्थापित करके एक 'कामनवेल्थ' खड़ा किया जाय जिसमें कोई किसी से यह न पूछे कि तेरा धर्म क्या है? और तू कोई धर्म रखता है या नहीं? उनको सम्मति में धर्म संबंधी सब पुस्तकें समुद्र में फेंक दी जाएँ तथा धर्मसभाओ को देशनिकाला दे दिया जाय। उनकी राय है कि ऐसा न करने से देश का उद्धार नही हो सकता। भारतवर्ष का राजनीतिक हित भी इसी पर निर्भर है कि किसी को दूसरे के आचरण पर प्रश्न करने का अधिकार न हो। हर एक मनुष्य को पूरी स्वाधीनता हो कि जो चाहे खाए, पीए और जो चाहे सो करे। वे यही चाहते है कि केवल शासन में उन्हें भाग मिल जाए और बडे़-बडे़ पद भी उन्हें मिलने लगें। सरकार उनसे सलाह लेने लग जाये, टैक्स लगाने और उठाने मेें उनकी पूछ हो और उन्हें हर प्रकार के धार्मिक या सामाजिक बंधन से छुटकारा मिल जाय। हिन्दू युवकों की एक मंडली आजकल इसी सिद्धान्त को मानने वाली हो रही है। परन्तु दूसरी ओर जिस मंडली को आध्यात्मिक उन्नति का ध्यान है, जिसको धार्मिक शिक्षा या धार्मिक दर्शन से घृणा नहीं, वे वैराग्य, वेदान्त, योग और संन्यास को ही अपना मंतव्य समझते है। उनके विचार में यह संसार स्वप्नवत् और सांसारिक सुख सब घृणित वस्तु हैं। उन्हें सांसारिक उन्नति की परवाह नहीं, वह अपनी धुन में एकदम ब्रह्म या एकदम परमयोगी बनने के अभिलाषी दीख पड़ते हैं। उनकी समझ में वे लोग पागल हैं जो आत्मोन्नति को छोड़कर भौतिक उन्नति के लिए तत्पर हो रहे है। आजकल नवशिक्षित मंडली साधारणत: इन्ही दो में से एक मत की अनुयायी हो रही है। परन्तु इनके अतिरिक्त बीच का एक और दल है, जिसे उपर्युक्त दोनों मडलियाँ तुच्छ दृष्टि से देखती हैं। यह दल चाहता है कि हिन्दू अपने प्राचीन शास्त्रोक्त धर्म पर स्थिर होकर उसी धार्मिक शिक्षा के अनुसार उन्नति करें। यह शिक्षित मंडली जैसे एक ओर