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36 योगिराज श्रीकृष्ण
 


दिया था।

श्लोकार्थ-व्यास ने असल में 24 हजार श्लोकों में भारत वनाई, विद्वान् उसी को असल महाभारत कहते है।[१] परन्तु आधुनिक महाभारत में 1 लाख 7 हजार 3 सौ 90 श्लोक है ओर 268 श्लोकों में तो केवल सूचीपत्र लिखा गया है। इससे यह परिणाम निकलता है कि आधुनिक भारत मे कितनी वृद्धि हुई है और इसी से उसकी ऐतिहासिक स्थिति कितनी कम हो गई है। अनेक हस्तलिखित प्रतियों में तो आटि के कई अध्याय ही लुप्त है जिससे प्रोफेसर भैक्समूलर मि० रमेशचन्द्र दत्त रचित कविताबद्ध महाभारत की भूमिका से यह परिणाम निकालते हैं कि यह सारा अध्याय पीछे से बढ़ा दिया गया है। सारांश यह कि वर्तमान महाभारत में बहुत कुछ मिलावट है। फिर भी कृष्ण विषयक जो कुछ हम जानना चाहते हैं वह हमको इन्हीं दोनों ग्रंथो से विदित हो सकता है : (1) विष्णुपुराण (2) महाभारत। अतएव हमारे देशवासियों को चाहिए कि कृष्ण के चरित को जानने के लिए इन दोनों पुस्तकों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें और फिर निष्पक्ष भाव से परिणाम निकालें कि क्या कवि की अत्युक्ति है और क्या वास्तविक है।

(8) वास्तविक तथ्यों तथा मिलावट का बोध कैसे हो सकता है? हम सब इस बात को मानते हैं कि बौद्ध धर्म ने श्रीकृष्ण के पश्चात् जन्म लिया है। हिन्दू श्रीकृष्ण को द्वापर युग का अवतार मानते है और महाभारत की लड़ाई से कलियुग का आरम्भ बताते है। यूरोपीय विद्वान् प्राचीन तत्त्ववेत्ता कृष्ण का समय हजरत मसीह से हजार वर्ष पहले ठहराते हैं। यह बात अनुसन्धान द्वारा मालूम होती है कि महात्मा बुद्ध का जन्म हजरत मसीह से पाँच सौ वर्ष पहले हुआ है अतएव यह परिणाम निकलता है कि विष्णुपुराण और महाभारत में जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म की शिक्षा के चिह्न पाये जाते है वे भाग (महाभारत के) बौद्ध काल के पश्चात् के है, अतः विश्वसनीय नहीं हो सकते। इस प्रकार संस्कृत साहित्य का अध्ययन हमें बताता है कि बौद्ध धर्म से पहले इस देश में मूर्तिपूजा प्रचलित नहीं थी और न मूर्तियों के लिए मन्दिर बनाने की परिपाटी थी।

अत: यह कहना युक्तियुक्त ही है कि महाभारत और विष्णुपुराण के जिन भागों मे मूर्तिपूजा और मन्दिरों का वर्णन है वे पीछे से मिलाये हुए हैं। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म से पहले के साहित्य में ईश्वर के अवतार लेने का कहीं वर्णन नहीं है और न उस समय तक हिन्दुओं में (तसलीस) त्रिमूर्ति (विष्णु, शिव और ब्रह्मा) की पूजा का प्रचार था, वरन् उस समय तक जाति के बंधन भी ऐसे प्रबल न थे जैसे कुछ काल पश्चात् हो गए। इन बातो का विचार करके विष्णुपुराण तथा महाभारत में से भी बहुत कुछ सत्य निकल सकता है। जातिबंधन के विषय में इतना कह देना पर्याप्त होगा कि स्वयं व्यास महाराज (जो महाभारत के रचयिता है) जन्म से शूद्र थे[२] जिससे सिद्ध होता है कि उस समय (जब व्यास जी ने भारत लिखी है) जाति का कुछ अधिक विचार न था। यदि यह मान लें (और इसके मानने में संकोच

  1. चतुर्विशति साहस्री चके भारत संहिताम्।
    उपारसवानैर्विन्त व्रक्त फरतं प्रौच्यतै बुधै आदि पर्व 1/102
  2. व्यास का जन्म महर्षि पराशर और नषाद पुत्री सत्यवती से हुआ