अनुसन्धान करना उचित होगा कि इन पुराणों को कहाँ तक ऐतिहासिक होने का गौरव प्राप्त है
या उनके लेख कहाँ तक विश्वास-योग्य है?
(अ) प्राचीन आर्य जाति ऐतिहासिक विद्या से अनभिज्ञ नहीं थी
अपनी सम्मति स्पष्ट रूप से प्रकट करने से पूर्व एक बात कह देना आवश्यक है। हम इस
बात के मानने वाले नहीं हैं कि प्राचीन काल में यद्यपि आर्य जाति विद्या, सभ्यता और दर्शन-
शास्त्र में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी और सब शिल्प विद्या आदि का वर्णन संस्कृत साहित्य में
अब तक पाया जाता है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी वह ऐतिहासिक विद्या से पूर्ण अनभिज्ञ
थी और उसमे न इतिहास पढ़ने की रुचि थी और न लिखने की परिपाटी।
वास्तविक बात यह है कि संस्कृत साहित्य की वर्तमान दशा को देखकर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन आर्य लोग अमुक-अमुक विद्या और शास्त्र में निपुण थे, पर निर्णयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि वे उनके अतिरिक्त अमुक विद्या से निरे अनभिज्ञ थे। प्राचीन आर्य सभ्यता को इतना अधिक समय व्यतीत हो गया है कि उसका यथार्थ अनुमान करना असम्भव नही तो कठिन अवश्य है। फिर इसी अन्तर में यहाँ बहुत से परिवर्तन हुए हैं इसलिए किसी विद्या-विशेष के ग्रंथों के न मिलने से यह परिणाम निकाल लेना कि पुराने आर्य लोग उस विद्या से अनभिज्ञ थे, युक्तिसंगत नहीं। परमेश्वर जाने कितने अमूल्य रत्न पुरानी इमारतों के खंडहरो में दबे पड़े है और कितने तो भूमि में ऐसे समा गये हैं कि अब उनके अवशेषो के रूप में दर्शन होना दुर्लभ है और शायद अभी बहुत से ऐसे भी है जो ब्राह्मणों के बस्तों में पड़े सड रहे है। उन बेचारों को यह भी ज्ञात नहीं कि इन फटे-पुराने जीर्ण ग्रंथों में विद्यमान कैसे उच्चतम भाव नष्ट हो रहे हैं, जिनको जानने के लिए आधुनिक शिक्षित संसार लाखों रुपये खर्च करने के लिए उद्यत है। प्राचीन आर्य सभ्यता के विषय में अनुसंधान आरंभ हो गया है और लोग इन सब रत्नों को खोदकर निकाल रहे हैं। ऐसी अवस्था में निर्णय सहित यह कहना असम्भव प्रतीत होता है कि प्राचीन आर्य जाति अमुक विद्या से अनभिज्ञ थी। इसलिए हम पुन: यही कहते है कि वर्तमान साहित्य को देखकर कभी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि प्राचीन आर्य इतिहास विद्या से अनभिज्ञ थे। हमारे साहित्य में अभी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह परिणाम निकाल सकते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास का पढ़ना और लिखना विशेष रूप से गौरव की दृष्टि से देखा जाता था और विद्यारसिको की एक विशेष मण्डली का यही काम था कि राजा और महाराजाओं के दरबार में प्राचीन कथाओ को सुनाया करें।
प्राचीन ग्रंथों, ब्राह्मण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पौराणिक समय के साहित्य मे इस विषय के अनेक प्रमाण उपस्थित है। वैदिक साहित्य में भी जहाँ-जहाँ भिन्न-भिन्न विद्याओं और शास्त्रों का वर्णन किया है वहाँ पुराण और इतिहास शब्द भी मिलता है।[१] इससे यह परिणाम निकलता है कि उस समय पुराण और इतिहास एक पृथक् लेखन विधा का नाम था जिसे आजकल ऐतिहासिक साहित्य कहते है। प्रमाण के लिए हम यहाँ कुछ वाक्य उद्धृत करते है।
- ↑ अथर्ववेद 156/4