पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/२६

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भूमिका


संसार में कौन-सी ऐसी जाति है जिसने वीरों की देवता के तुल्य वंदना नहीं की और जिन्हें सृष्टि में एक साधारण जीवधारी विचार कर भी सृष्टिकर्ता का उच्चासन नहीं प्रदान किया। मनुष्य में यह बात स्वाभाविक है कि वह अपने से श्रेष्ठ शक्ति वा कुशलता की ओर झुकता है और जब वह किसी पुरुष-विशेष को अपने से बढ़कर योग्य देखता है और उसकी योग्यता या कुशलता के यथोचित विवेचन करने में अपने को असमर्थ देखता है तथा अपने अंत:करण को उसकी महान् शक्ति से आकर्षित पाता है, तो वह स्वत: उस पुरुष-विशेष को ऐसा आदिपुरुष मानने लगता है, जो अपने गुण और लक्षण में एक है, और जिसका न कोई उत्पन्न करने वाला है और न संहार ही कर सकता है। अन्तर केवल इतना ही है कि शिक्षित और धार्मिक जातियाँ (यद्यपि इनका सत्कार, पूजन के दरजे से कम नहीं होता) इन पुरुषों में और उनके उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर में भेद की सीमा को मिटाने नहीं देती, परन्तु जो जातियाँ अनपढ़ होने के कारण अज्ञानरूपी अंधकार मे फँसी हैं, उन्हें इसका ज्ञान या भेदाभेद का विचार दृष्टिगोचर रखना किसी प्रकार संभव नहीं-यों तो मुख से सब कुछ कह दें और उच्च स्वर से मानव-पूजन की निन्दा करे, परन्तु यथार्थ में कोई भी इस दोष से बचा हुआ प्रतीत नहीं होता। इस सृष्टि की सारी जातियाँ एक न एक प्रकार से मानव-पूजक हैं। संसार की कोई विद्या या शिक्षण-पद्धति ऐसी नहीं जो इस विषय की शिक्षा न देतो हो। इसकी पुष्टि में उन जातियों के सम्मुख बहुत-से दृष्टान्त उपस्थित किये जाते है, जिन्हें इस बात का गर्व है कि हम तो एक परमेश्वर के उपासक है। अँगरेजी भाषा का प्रसिद्ध लेखक मि० कालडिल जिसने लालित्ययुक्त शब्दजटित हार पिरोकर उनमें अपने पवित्र विचारों के अमूल्य नग जड़े है, जिसने शब्द रूपी मोतियों को इस प्रकार लालित्य रूपी संबंध में संगठित किया है कि यह पृथ्वी की तह में से खोदे हुए हीरे और लालों से अधिक मूल्यवान् और प्रकाशमान प्रकट होते हैं, अपने उस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'हीरो वर्शिप' में लिखता है कि "संसार के महापुरुष वास्तव में उस महान् अग्नि की एक चिंगारी के सदृश है जिसके प्रकाश से यह संसार प्रकाशमान है, और जिसके ताप में खनिज, उद्भिज तथा मनुष्य, पशु आदि समस्त संसार स्थित है। जिसकी दाह मानों दया की वर्षा है और जिसकी ठंडक मानों हृदय में उमंग, उत्तेजना और आकर्षण उत्पन्न करने वाली है।"

2. वैदिक महापुरुष


उन्नीसवीं शताब्दी के इस अँगरेजी विद्वान् ने जो भाव इस पुस्तक में प्रकट किये हैं, वे लाखो वर्ष पूर्व आर्यावर्त में आर्य ऋषियों द्वारा उनकी पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके है-संस्कृत भाषा