पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/२४

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प्रस्तावना/23
 


इसलिए पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों की भाषा में फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता थी। जब कभी उनको गूढ़ विषयों के प्रकट करने के लिए विशेष शब्दों की आवश्यकता पड़ती थी तो वे मुसलमानी साहित्य से सहायता लेते थे। जब अँगरेजी राज्य हुआ तो उस हिन्दुस्तानी भाषा में अँगरेजी के शब्द आने आरम्भ हुए और इसी तरह हिन्दुओं की भाषा में संस्कृत व हिन्दी के शब्दों का प्रचलन बढ़ने लगा। कोई कारण नहीं मालूम होता कि क्यों हिन्दू लोग अपने धार्मिक विचारों को प्रकट करने के लिए अब मुसलमानी साहित्य की भाषा का प्रयोग करें और हिन्दी व संस्कृत के शब्दों के स्थान में फारसी व अरबी के शब्द तलाश करें। भाषा वह है जो बोली जाए। बस, जब समय के हेर-फेर से हिन्दुओं की बोलचाल में अँगरेजी, हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का चलन हो गया तो कोई कारण मालूम नहीं होता, कि वे लेख भी उसी भाषा में न लिखे जाएँ जिसको वे बोलते हैं। भेद इतना ही है कि अँगरेजी सरकार फारसी के अक्षरों को हिन्दुस्तानी भाषा में लिखने के लिए प्रयोग करती है और सरकारी स्कूलों में इस हिन्दुस्तानी भाषा की शिक्षा फारसी अक्षरों में दी जाती है। इस कारण लाचारी से उन्हें फारसी अक्षरों का प्रयोग करना पड़ता है। हम प्रामाणिक उर्दू जानने वाले विद्वानो के लेखों में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग बता सकते है। तथ्य तो यह है कि हिन्दुओं के विचारों को प्रकट करते हुए हिन्दी शब्दो का प्रयोग आवश्यक है (देखो मौलाना मौलवी अल्ताफ हुसेन हाली की मनाजाते वेवा) बल्कि कुछ विद्वान् तो असल उर्दू उसको कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी शब्द बहुत कम हो या बिलकुल न हों। उर्दू में से फारसी व अरबी के शब्द निकाल दिये जाएँ तो शुद्ध हिन्दी रह जाती है। भेद इतना है कि जो शब्द हिन्दी में साधारणत: प्रयोग में नहीं आते वे मुसलमान महाशयों को बुरे मालूम होते हैं और वे उनको उर्दू नहीं कहते, परन्तु जो शब्द साधारण तौर पर प्रयोग में आते है उनको वह उर्दू समझते है। अतः जो हिन्दू अपने स्वजातीय भाइयो के लिए ऐसी पुस्तकें लिखते है जिनमें उनके धार्मिक या जातीय विचार या अवस्थाओं का उल्लेख है उनमें हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का प्रयोग अनुचित नहीं है। कैसे सम्भव है कि कोई हिन्दू हिन्दुओं के लिए पुस्तक लिखता हुआ कृष्ण, अर्जुन व युधिष्ठिर के व्याख्यानों का अनुवाद उर्दू भाषा में करे और क्लिष्ट धार्मिक विचारो के प्रकट करने के लिए फारसी व अरबी के कठिन शब्द तलाश करे। हिन्दू स्त्रियों के व्याख्यानों का अनुवाद करता हुआ फारसी व अरबी के शब्दों का प्रयोग तो बहुत ही बुरा मालूम होता है। ऊपर लिखी बातों से हमारे विचार में हमारी भाषा पर जो आक्षेप किया जाता है वह हमको उपयुक्त नहीं लगता। यदि उद्योग करें तो हम मुसलमानी उर्दू में भी अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं, परन्तु हमें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और न इसमे कुछ लाभ ही प्रतीत होता है। वरंच इसके विपरीत यदि हम ऐसा करें तो बहुत-से हिन्दू भाई हमारे लेखों से पूरा लाभ भी न उठा सकेंगे। इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि पुस्तकें लिखना और उनसे द्रव्य कमाना या केवल भाषा का लालित्य दिखाना न तो हमारा पेशा है और न हमारा उद्देश्य है। हम तो अवकाश के समय अपने विचारो को इस अभिप्राय से प्रस्तुत करते हैं कि जिन लोगों तक हम अपने विचारों को व्याख्यानो द्वारा नहीं पहुँचा सकते उन तक अपने विचारों को लेख द्वारा पहुँचाएँ। यदि हम उस समय