न होने से विभिन्न माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी तथा प्रजापीड़क हो गये थे। मथुरा का
कंस, मगध का जरासंध, चेदिदेश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के दुर्योधन प्रमुख कौरव सभी
दुष्ट, विलासी, ऐश्वर्य-मदिरा में प्रमत्त तथा दुराचारी थे। कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक
चातुर्य तथा अपूर्व सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों का मूलोच्छेद किया तथा धर्मराज कहलाने
वाले अजातशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर आर्यों के अखण्ड,
चक्रवर्ती, सार्वभौम साम्राज्य को साकार किया।
जिस प्रकार वे नवीन साम्राज्य-निर्माता तथा स्वराज्यस्रष्टा युगपुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित हुए उसी प्रकार अध्यात्म तथा तत्त्व-चिन्तन के क्षेत्र में भी उनकी प्रवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थी। सुख-दुःख को समान समझने वाले, लाभ और हानि, जय और पराजय जैसे द्वन्द्वों को एक-सा मानने वाले, अनुद्विग्न, वीतराग तथा जल में रहने वाले कमल पत्र के समान सर्वथा निर्लेप, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को यदि हम साकार रूप में देखना चाहें तो वह कृष्ण से भिन्न अन्य कौन-सा होगा? प्रवृत्ति और निवृत्ति, श्रेय और प्रेय, ज्ञान और कर्म, ऐहिक और आमुष्मिक (परलोक विषयक) जैसी आपाततः विरोधी दीखने वाली प्रवृत्तियों में अपूर्व सामंजस्य स्थापित कर उन्हे स्वजीवन में चरितार्थ करना कृष्ण जैसे महामानव के लिए ही सम्भव था। उन्होंने धर्म के दोनो लक्ष्यों--अभ्युदय और निःश्रेयस की उपलब्धि की। अतः यह निरपवाद रूप से कहा जा सकता है कि कृष्ण का जीवन आर्य आदर्शों की चरम परिणति है।
समकालीन सामाजिक दुरवस्था, विषमता तथा नष्टप्राय मूल्यों के प्रति भी वे पूर्ण जागरूक थे। उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊर्ध्वगामी बनाया। स्त्रियों, शूद्रों, बनवासी जनों तथा पीड़ित एव शोषित वर्ग के प्रति उनके हृदय में अशेष संवेदना तथा सहानुभूति थी। गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि आर्य-कुल ललनाओ को समुचित सम्मान देकर उन्होंने नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढाई। निश्चय ही महाभारत युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे। गुण, कर्म तथा स्वभाव पर आश्रित मानी जाने वाली आर्यों की वर्णाश्रम व्यवस्था जन्मना जाति पर आधारित हो चुकी थी। ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता, सम्मान के प्रति निर्लेपता जैसे सद्गुणों को भुलाकर अनेक प्रकार के दूषित भावो को ग्रहण कर चुका था। आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्णात ब्राह्मण स्वाभिमान को तिलांजलि दे बैठे थे तथा सब प्रकार के अपमान को सहन करके भी कुरुवंशी राजकुमारो को शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे। कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग, जिसमें महामहिम सम्राटो के राजकुमार भी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आचार्य कुल में जाकर दीर्घकाल तक निवास करते थे और कहाँ महाभारत का यह युग जिसमें कुरुवृद्ध भीष्म के आग्रह (उसे आदेश ही कहना चाहिए) से द्रोणाचार्य ने राजमहल को ही गुरुकुल (अथवा विश्वविद्यालय) का रूप दिया और उसमें शिष्य-शिष्य में भेद उत्पन्न करने वाली जो शिक्षा दी, उसका निकृष्ट फल दुर्योधन के रूप मे प्रकट हुआ। सामाजिक समता के ह्रास के इस युग में क्षत्रिय कुमारों में अपने अभिजात कुलोत्पन्न होने का मिथ्या गर्व पनपा तो उधर तथाकथित हीन कुल में जन्मे कर्ण (वस्तुत: कर्ण तो कुन्ती का कानीन पुत्र था किन्तु उसका पालन अधिरथ नामक एक सारथी (सूत) ने किया