सम्पादकीय
पाँच हजार वर्ष पूर्व आज की ही तरह विश्व के क्षितिज पर भादों की अँधेरी तमिस्रा अपनी
निगूढ़ कालिमा के साथ छा गई थी। तब भी भारत में जन था, धन था, शक्ति थी, साहस
था, पर एक अकर्मण्यता भी थी जिससे सब कुछ अभिभूत, मोहाच्छन्न तथा तमतावृत्त हो रहा
था। महापुरुष तो इस वसुंधरा पर अनेक हुए है किन्तु लोक, नीति और अध्यात्म को समन्वय
के सूत्र में गूँथ कर राजनीति, समाज नीति तथा दर्शन के क्षेत्र में क्रान्ति का शंखनाद करने वाले
योगेश्वर कृष्ण ही थे।
परवर्ती काल में कृष्ण के उदात्त तथा महनीय आर्योचित चरित्र को समझने में चाहे लोगो ने अनेक भूलें ही क्यों न की हों, उनके समकालीन तथा अत्यन्त आत्मीय जनों ने उस महाप्राण व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन किया था। सम्राट् युधिष्ठिर उनका सम्मान करते थे तथा उनके परामर्श को सर्वोपरि महत्त्व देते थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्य जैसे प्रतिपक्ष के लोग भी उन्हें भरपूर आदर देते थे। महाभारत के प्रणेता भगवान् कृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो उन्हें धर्म का पर्याय बताते हुए घोषणा की थी-
यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जय।
जहाँ कृष्ण हैं वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है वहाँ जय तो निश्चित ही है।
भगवद्गीता के वक्ता महामति संजय ने जो भविष्यवाणी की थी, उसे समसामयिक लोगो की सहमति प्राप्त थी, क्योंकि उसने सत्य ही कहा था--
यत्र योगेश्वरो कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥18/78
आर्य जीवनकला का सर्वागीण विकास हमें कृष्ण के पावन चरित्र में दिखाई देता है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। सर्वत्र उनकी अद्भुत मेधा तथा सर्वग्रासिनी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वे एक ओर महान् राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रपुरुष के रूप में दिखाई पड़ते है तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन और नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक भी है। उनके समय में भारत देश सुदूर गांधार से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे, स्वतंत्र किन्तु निरकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था। उन्हें एकता के सूत्र में पिरोकर समग्र भरतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोने वाला कोई नहीं था एक चक्रवर्ती सम्राट् के