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कृष्ण महाराज की शिक्षा / 147
 

की पहचान में ही गुथा रहे। वह पुरुष दुनिया की क्या परवाह करेगा जो सब पृथ्वी का चक्रवर्ती राज्य रखता हुआ भी अपने मन में मोह नहीं रखता और नहीं इसके भोग से ही मोहित होता है। परन्तु वह पुरुष जो दुनिया को त्यागकर जंगल मे साधु वेष बनाकर, जंगली कन्दमूल का भोजन करता हुआ भी दुनियावी पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा रखता है और इनकी ओर दिल लगाता है, तो वह मानो मृत्यु को हर वक्त अपने मुँह में ही लिए फिरता है। इसलिए तुमको उचित नहीं है कि अपने कर्तव्य को पूर्ण रीति से किये बिना तुम त्याग का विचार करो। असल त्याग इसी में है कि मनुष्य का मन इसके वश में हो और अपनी सब इच्छाओं पर उसका पूर्ण अधिकार हो। ऐसा पुरुष संसार में रहता हुआ राज्य करता हुआ भी पूरा त्यागी और अपने दिल का बादशाह है।"

वाह! क्या शब्द हैं। शब्द हैं या मोती हैं जिनका रूप, रंग और जिनकी चमक-दमक के सामने अच्छी से अच्छी और तीव्र से तीव्र दृष्टि वाली आँख भी नहीं ठहर सकती। नहीं नहीं ये मोती नहीं! मोती तो मिट्टी है। उनसे न तो भूखे की भूख मिट सकती है, न प्यासे की प्यास बुझ सकती है, न शोकाकुल का शोक दूर हो सकता है और न उदास की उदासी कम हो सकती है। बहुमूल्य से बहुमूल्य मोती रखते हुए भी आदमी दु:ख, दर्द और क्लेश से छुट्टी नहीं पाता। महमूद गजनवी के पास क्या मोतियों की कमी थी और रूस के जार[] के पास क्या मोती कम है? लेकिन क्या कोई कह सकता है कि मोतियों के कारण महमूद को सुख मिला या जार इन मोतियों के कारण सुखी है? सच तो यह है कि यदि तमाम दुनिया की दौलत, सोना, चाँदी, हीरे, मोती, जवाहरात आदि इकट्ठे कर लिए जावें तब भी इनका मूल्य इन शब्दों और इन विचारों के मूल्य से कहीं कम है। यह वह अमृत है जिसकी तलाश में मोतियों वाला सिकंदर आजम मर गया। यह वह संजीवनी बूटी है जिसको पाने के लिए दुनिया के बड़े-से-बड़े राजा-महाराजा तड़पते हुए मर गये। यह वह अमृत है जिसको पीकर मनुष्य मरने-जीने के दुःख से छूट जाता है और जिसको प्राप्त करके मोती मिट्टी दीख पड़ते हैं। यह वह नुस्खा है जिससे दुःख, बीमार की बीमारी, बेचैन की बेचैनी और व्यकुल, अशान्त आत्मा की व्याकुलता और अशान्ति इस तरह भाग जाती है जैसे मनुष्य की बास पाकर जंगली हिरन भाग जाता है।

यही वह ज्ञान है जो मनुष्य के लिए इस दुःख-सागर-संसार को शान्ति-सरोवर और सुख का धाम बना देता है। जो इसको सब बंधनो से छुड़ाकर केवल एक प्रभु के चरणकमल पद को प्राप्त कराता है, जहाँ पहुँचकर जीवात्मा आनन्द ही आनन्द में विश्राम करता है।

पाठकों! क्या आप समझे। यह वह शिक्षा है जो हमको बताती है कि ड्यूटी (कर्तव्य) ड्यूटी के ही लिए करना चाहिए। यह वह शीशा है जो हमको धर्म का सच्चा स्वरूप दिखाता है और समझाता है कि धर्म करने के वास्ते और कोई गरज नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वह धर्म है या ईश्वराज्ञा है या उस परमात्मा का नियम है, जिसके नियमों में सर्वशक्तिमान् होने

 

  1. 1917 की साम्यवादी क्रान्ति के पहले रूस के शासक जार कहलाते थे। जब यह पुस्तक लिखी गई उस समय रूस पर जार का ही राज्य था। —सम्पादक