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कृष्ण महाराज की शिक्षा / 145
 

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममोभूत्वा युद्धस्व विगतज्वरः ॥30॥

अर्थ–समस्त कर्मों को परमात्मा के अधीन करके, इसी पर अपने सब विचारों को निर्भर रखते हुए आशा और आत्माभिमान को छोड़कर तथा इस विचार के संताप से मुक्ति पाकर तू युद्ध करने पर कटिबद्ध हो। चौथे अध्याय में भी इसी तरह कर्म और अकर्म, उचित और अनुचित कर्मों का तत्त्व वर्णन किया है।

पाँचवें अध्याय के श्लोक में फिर यही उपदेश आता है—

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन: पद्मपत्रभिवाम्भासा ॥10॥

अर्थ–जो सब कर्मों को ब्रह्म परायण करके बिना मोह के कर्म करता है वह पाप में नहीं फँसता, जैसे कि कमल के पत्ते पर पानी का कोई चिह्न नहीं होता।

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगत्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥

अर्थ–मोह को छोड़कर शरीर से, मन से, बुद्धि से और इन्द्रियों से भी योगी अपनी आत्म-शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। छठे अध्याय के पहले श्लोक में तो बिलकुल साफ लिख दिया है।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥1॥

अर्थ–संन्यासी और योगी वही है जो कर्मों के फल की परवाह न करता हुआ कर्म को कर्तव्य समझकर करता है, न कि वह जो कभी आग नहीं जलाता और कुछ कर्म नहीं करता। श्लोक 16 में फिर कहा है कि—

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकांतमनश्नतः।
नचाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥

अर्थ–हे अर्जुन, योग उसके लिए नहीं है जो अधिक खाता है या जो बहुत ही कम खाता है और न उसके वास्ते है जो बहुत सोता है या बहुत जागता है।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥17॥

अर्थ–दुख नाश कर देने वाला योग उसके लिए है जो नियम से खाता है, नियम से सोता है और जागता है, और नियम से ही सब काम करता है।

नवें अध्याय के 27वें श्लोक में फिर लिखा है।

यत्करोषियदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥

अर्थ–सब कर्मों को ईश्वर परायण होकर करने का उपदेश किया है। हे कुन्तीपुत्र जो कुछ तू करे जो कुछ तू खाये जो कुछ तू भट करे जो कुछ तू दान करे अथवा जो तू तप