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142/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


कहीं-कहीं इतिहास इत्यादि में ऋषियो, मुनियों तथा आचार्यों के नाम आते है, परन्तु उनके वर्णन मे क्रम से यह भी मालूम होता है कि एक ही नाम के बहुत-से ऋषि हो चुके हैं-जैसे आज हमारे लिए यह निश्चित करना असंभव है कि वर्तमान मनुस्मृति कौन-से मनु महाराज की रचना है? प्राचीन आर्य लोग परमेश्वर को ही आदि गुरु और सच्चा उपदेशक मानते थे इसलिए उन्होंने कभी इस बात की चेष्टा नहीं की कि वे अपने नाम से कोई धर्म प्रचलित करें। उनके लेखों से ज्ञात होता है कि इस प्रकार के कार्य को ये अधर्म और पाप समझते थे। धर्मचर्चा धार्मिक विचार और वादानुवाद करना तो वे उचित समझते थे, परन्तु अपने नाम से किसी नवीन धर्म का प्रचार करना या कोई नवीन शिक्षा देना उनके विचार से सर्वथा अनुचित था।

प्राचीन हिन्दुओं के सब आचार्य, ऋषि या मुनि जो कुछ शिक्षा देते थे उसको वे अपने पूर्व पुरुषो, वेद या शास्त्रो का आदेश बतलाते थे। अपनी तरफ से कोई नवीन शिक्षा देने का साहस उन्होंने कदापि नहीं किया। बस वर्तमान समय में हमारी तरफ से यह प्रयत्न हुआ कि हम उनमें किसी एक को चुनकर उसी के नाम से किसी मत को जारी कर दें। यह सचमुच उनके महत्त्व को कम करना है। इस पर भी तुर्रा यह है कि हमारी यह कार्यवाही एक ऐसे वीर क्षत्रिय राजपुत्र के साथ संबंध रखे जिसने कभी भी धर्म-प्रचार की चेष्टा ही नहीं की। हम पिछले परिच्छेद में कह चुके हैं कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि कभी कृष्ण महाराज ने सर्वसाधारण को धार्मिक शिक्षा देने की चेष्टा की हो। तब कृष्ण को किसी धर्म का व्यवस्थापक मानना व्यर्थ है। हम बतलाना चाहते हैं कि भगवद्गीता की सब युक्तियों को कृष्ण महाराज की शिक्षा समझना उचित नहीं। परन्तु विचार के लिए यदि ऐसा मान भी लिया जाये तो भी परिणाम तो यही निकलता है कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए वह उपदेश किया, जो गीता में है। यदि इसी उपदेश के कारण कृष्ण महाराज एक धर्म-विशेष के व्यवस्थापक माने जा सकते हैं तो क्या कारण है कि भीष्म महाराज को भी वही पदवी न दी जावे जिनके उपदेश कृष्ण महाराज के उपदेशों से गूढ़ता, विद्वत्ता, सत्यता और तात्त्विकता मे किसी प्रकार कम नहीं है? क्या कोई हमको बतला सकता है कि भगवद्गीता मे कौन-सी ऐसी शिक्षा है जो उससे पहले के बने हुए उपनिषदों और ब्राह्मणों में उपस्थित नहीं है या जो वेदो मे भी पाई नहीं जाती? तब वह कौन-सी शिक्षा है जिसे हम कृष्णाइज्म के नाम से प्रसिद्ध करे? सिवाय इसके कि हम उन बातों को कृष्णाइज्म कहें जो श्रीमद्भागवत या ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में भरी हुई हैं और जिससे कृष्ण महाराज का पवित्र जीवन कलंकित किया जाता है। लेकिन श्रीमद्भागवत की शिक्षा को कृष्णाइज्म के नाम के सम्बोधन करने से तो कृष्ण महाराज का कुछ यश नही होगा। हमारे विचार से तो श्रीमद्भागवत की शिक्षाओं को कृष्ण महाराज के सिर मढ़ना सर्वथा अनुचित है क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों से यह कदापि प्रमाणित नहीं होता कि कृष्ण महाराज ने कभी ऐसी शिक्षा दी, जैसी श्रीमद्भागवत में पाई जाती है।

स्पष्ट तो यह है कि हमारे विचार में कृष्ण महाराज ने कोई ऐसा मत नहीं चलाया जिसको हम उनके नाम से प्रसिद्ध करें। इसलिए शब्द कृष्णाइज्म का प्रयोग ही अशुद्ध और अनुचित है। यदि कृष्णाइज्म से उन्हीं उपदेशों का अभिप्राय है जो कृष्ण महाराज ने अर्जुन तथा अपने