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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा

यह शब्द (कृष्णाइज्म) उन अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दुओं की गढ़त है जो अंग्रेजी शिक्षा पाकर भी पौराणिक हिन्दूमत के उस भाग को मानते हैं जिसको हिन्दुओ की बोलचाल में वैष्णव धर्म कहा जाता है। शायद सारे संस्कृत साहित्य में कोई शब्द ऐसा न मिलेगा जो ईसाई मत, मुहम्मदी मत और बौद्ध धर्म की तरह श्रीकृष्ण के नाम के साथ किसी मत या धर्म का संबंध सूचित करता हो। अंग्रेजी जानने वाले कृष्णभक्तो ने संस्कृत साहित्य की इस कमी को पूरा करने की कोशिश मे कृष्ण के नाम पर एक मत की नींव डाली है जिसको वह कृष्णाइज्म कहकर पुकारते हैं। परन्तु संस्कृत साहित्य के साधारण अन्वेषण से तो यही ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण ने किसी मत की नींव डालने का साहस नहीं किया और न उन्होंने किसी ऐसे धर्म की शिक्षा दी जो उचित रीति से उनके ही नाम से जगत् में प्रसिद्ध हो। हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद और महात्मा बुद्ध इन तीनों महापुरुषों ने एक नवीन धर्म की नींव डाली और इसलिए उनके मत या धर्म उनके नाम से प्रसिद्ध हो रहे हैं। यद्यपि अर्वाचीन समय के बहुतेरे हिन्दू सम्प्रदाय भी इसी प्रकार किसी-किसी महापुरुषों के नाम से प्रसिद्ध है, परन्तु प्राचीन संस्कृत साहित्य में इस तरह का कोई प्रमाण नहीं है। कृष्ण के समय के साहित्य में तो इस प्रकार का नाम-निशान ही नहीं हैं। प्राचीन हिन्दूमत में यही तो एक बड़ी विलक्षणता है कि उसकी नींव किसी मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा के आधार पर नहीं डाली गई है।

यदि सच पूछो तो प्राचीन हिन्दू साहित्य संसार के धार्मिक तत्त्व की आत्मा है। यह साहित्य इस प्रकार के अमूल्य धार्मिक तत्त्वों से परिपूर्ण है। इसके समान उच्च विचार दुनिया के और किसी साहित्य में दिखाई नहीं देते। इस पर भी तुर्रा यह कि इन विचारों को प्रकट करने वाले महापुरुषों ने अपने नाम का कोई भी चिह्न नहीं छोड़ा जिससे आप यह निश्चित कर सकें कि यह विचार और यह शिक्षा अमुक महापुरुष की थी। हमारे महापुरुषों में से किसी ने नवीन शिक्षा देने की चेष्टा नहीं की किन्तु सबके सब अपने आपको वेदोक्त ब्रह्मविद्या का अनुयायी बतलाते रहे। किसी ने नाम मात्र के लिए भी ऐसा साहस नहीं किया कि यह विचार मेरे हैं और मै इनको फैलाने के लिए संसार में आया हूँ। मेरे पहले यह विचार किसी के ध्यान में नहीं आये थे या मुझे विशेष रूप से यह ज्ञान स्वयं प्राप्त हुआ है। कभी किसी ने कोई नवीन मत प्रचारित करने का विचार नहीं किया। उपनिषदों और ब्राह्मणों का समस्त क्रम हमारे इस कथन का साक्षी है। उपनिषदों की अद्वितीय धार्मिक शिक्षा से यह कदापि लक्ष्य में नहीं आता कि इस शिक्षा का आचार्य कौन था और इन अमूल्य उक्तियों के लिए वे किस महापुरुष के चिर ऋणी है