भूमिका में हमने इस प्रश्न का निषेधात्मक उत्तर देकर यह प्रण किया था कि कृष्ण के जीवनचरित को लिखने के पश्चात् इस विषय पर कुछ अवश्य लिखेंगे। अत: कृष्ण के जीवनचरित का वर्णन समाप्त कर अब हम अपने प्रण को पूरा करते है।
परमेश्वर को मानने वाले सब आस्तिक लोग उसको सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, अजन्मा, अमर, अनादि, अनंत आदि गुणों से सम्बोधन करते है। पुन: यह बात किस तरह ठीक हो सकती है कि उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को अपने सेवकों के रक्षण हेतु नर-देह धारण करने की आवश्यकता पड़े? मनुष्य देह में आने से तो वह स्वयं बधन में पड़ जाएगा और तब वह सर्वव्यापी नहीं रह सकता।
क्या ईश्वर का अवतार मानने वाले हमको यह बतला सकते हैं कि जिस समय श्रीकृष्ण महाराज के शरीर में परमात्मा ने अवतार लिया था उस समय सारे संसार का शासन कौन करता था? जब श्रीकृष्ण कौरवों से लड़ते थे, शिशुपाल से झगड़ते थे, जरासंध के भय से भागते फिरते थे उस समय संसार का प्रबंध किसके हाथ में था और किस तरह चल रहा था? तात्पर्य यह है कि बुद्धि इस बात को कदापि स्वीकार नहीं कर सकती कि इस सृष्टि का स्वामी और बनाने वाला परमात्मा कभी नर-देह मे आता है। उसका तो यही गुण है कि वह संसार के सारे प्रपचों से परे है। यह शरीर तो उसके बनाये हुए हैं। मनुष्य जिसके कार्य-कौशल को स्वय नही समझ सकता, उसके विषय में कह देता है कि वह परमेश्वर ही इस बलहीन और बधनयुक्त मनुष्य-देह में आता है ताकि वह हमें अपने उदाहरणों से बतला सके कि किस प्रकार से जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस परमात्मा के विषय में ऐसा सोचना वास्तव में उसके ईश्वरत्व को अस्वीकार करना है। मनुष्य को ईश्वर का पद देना या ईश्वर को गिराकर मनुष्य के पद पर पहुँचा देना बड़ा भारी अपराध है। हमें खेद है कि हमारी जाति के लोग इस बुनियाद पर इतना भरोसा रखते हैं और अवतारों को माने बिना धर्म-शिक्षा का होना भी विचार में नही ला सकते। यद्यपि यह विषय बहुत आवश्यक और मनोरंजक भी है, इस पर वादानुवाद करने को भी जी चाहता है, परन्तु लेख के बढ़ जाने का विचार हमें रोकता है। दूसरे इस विषय पर वादानुवाद करना इस पुस्तक के उद्देश्यों से भी बाहर है। अस्तु, केवल इतना कहकर हम संतोष करते हैं कि वेदों और उपनिषदों में परमात्मा को अज (अजन्मा अमर अविनाशी और अकाय