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युधिष्ठिर का राज्याभषेक /133
 


जीवन बताता है कि यह वचन-चातुरी ही उनका सबसे जबरदस्त और उपयुक्त हथियार था जो अचूक था। अपने समय के दर्शन और वर्ण-धर्म के विषय में वह निपुण थे और उनकी व्यवस्था कभी खाली न जाती थी। वैराग्य के दर्शन को वह ऐसा विवेचित करते थे कि उनके सामने झूठे त्याग के विचार भागते से दिखाई देते थे। वैदिक धर्म के पृथक्-पृथक भावो को वे समन्वित करते थे और एक श्रेणीबद्ध दृश्य तैयार कर देते थे। प्राचीन शास्त्रो, ऋषियो और मुनियों की मर्यादा में वे ऐसे निपुण थे कि जहाँ उन्होने प्रमाण देने आरम्भ किये, वहाँ प्रतिपक्षी के द्वारा उन्हें मानने के सिवाय और कोई चारा ही नहीं रहता था। अत: इस अवसर पर भी कृष्ण का उपदेश काम कर गया और युधिष्ठिर ने राजपाट छोड़कर त्यागी बनने के विचार को चित्त से दूर कर दिया अन्त में रोते हुए सम्बन्धियों ने भाई, भतीजों, निकटवर्ती प्रियजनों के मृतक-संस्कार किये और फिर हस्तिनापुर को रवाना हुए। हस्तिनापुर में पहुँचकर युधिष्ठिर को गद्दी पर बैठाया गया। युधिष्ठिर गद्दी पर तो बैठ गया परन्तु उदास रहने लगा। फिर कृष्ण ने उसको अश्वमेध यज्ञ करने के लिए तैयार किया और उस यज्ञ की तैयारियों में पाण्डवों को लगाकर स्वयं मातृभूमि द्वारिका चले गये।

नोट-युधिष्ठिर के राजसिंहासन पर बैठने के बाद और कृष्ण के द्वारिका जाने से पहले महाभारत में एक और घटना का उल्लेख है, जिसकी सत्यता में संदेह है। यह कथा प्रचलित है कि जब युधिष्ठिर राजगद्दी पर बैठे तो भीष्म पितामह अभी जीवित थे। यह मालूम नहीं कि वे कुरुक्षेत्र से हस्तिनापुर आ गये थे या वहाँ ही किसी स्थान पर थे, परन्तु किंवदन्ती इस प्रकार है कि युधिष्ठिर को राजगद्दी के पश्चात् कृष्ण युधिष्ठिर और सारे पाण्डवों को महाराज भीष्म के पास ले गये और उनकी प्रार्थना पर महाराज भीष्म ने युधिष्ठिर को वह उपदेश किया जो महाभारत के शान्ति और अनुशासन पर्व में लिखा है। यह उपदेश लम्बा और जटिल है। ऐसे-ऐसे कठिन विषय इसमे भरे हुए हैं जिससे इस बात के मानने में संकोच होता है कि मरने के समय इस प्रकार के उपदेश महात्मा भीष्म ने दिये हों। तो भी किसी ऐसे महान् पुरुष से मृत्यु के समय उपदेश लेना साधारण बात है। अत: इस घटना का सत्य होना भी असम्भव नही है। यदि ऐसा हुआ भी हो तो भी महाराज भीष्म के असल उपदेशों पर बाद में इतनी टिप्पणियाँ चढ़ीं और उनमें इतनी मिलावट हुई जिससे यह निर्णय करना असम्भव है कि इसमें से कितना उपदेश महाराज भीष्म का है और कितना पीछे से मिलाने वालों के विचारों का अंश है।