संबंधियों और मित्रों की लाशें रणभूमि में पड़ी हुई नाचरंग के इन उत्सवों को दु:खमय बना रही थीं, परन्तु तो भी यह जीत ही थी जिससे पाण्डव प्रसन्न थे। युद्ध की समाप्ति हुई, शत्रु मारे गये सत्य की जय हुई, दुर्योधन और उसके भाइयों का प्रलाप और अत्याचार समाप्त हुआ और द्रौपदी की बेइज्जती का बदला भी खूब लिया गया। अन्ततः इस आनन्द बेला में पाँचो पाण्डव उस दिन शिविर से बाहर रहे और रात को भी वहाँ नहीं आए। इधर तो विजय के आनन्द में वे खुले जंगल की वायु का आनन्द ले रहे थे और उधर मृत्यु-देवता अपनी घात में लगा हुआ था।
जब पाण्डव दुर्योधन को रणभूमि में छोड़कर वापस चले गए तो उसकी सेना के तीन बचे हुए वीर अर्थात् अश्वत्थामा (द्रोणपुत्र), कृपाचार्य और कृतवर्मा उसके पास आए। वे उसको इस बुरी अवस्था में देखकर रोने लगे। एक समय वह था जब दुर्योधन आर्यावर्त के सबसे बड़े राज्य का स्वामी था। लाखों सैनिकों का सेनापति था। गगनचुम्बी सुन्दर महलों में निवास रखता था। उत्तम से उत्तम और कोमल से कोमल शय्या पर सोता था। सैकड़ो-हजारों मनुष्य उसकी आज्ञा के पालन के लिए हर समय प्रस्तुत रहते थे। वह आनन्द भोग में निमग्न था तथा राज्य और सम्पत्ति के नशे में ऐसा चूर था, कि बुरे व भले, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म मे अन्तर नहीं कर सकता था। आज वह दिन है कि राजपुत्र दुर्योधन धूलि में पड़ा सिसक रहा है। उसके चारो ओर लाशों के ढेर थे जो पुकार-पुकारकर उसकी नालायकी, घमंड और अन्याय पर उसे धिक्कारते थे। थोड़े ही दिन हुए थे कि उसने एक बड़ी सेना के साथ धूमधाम व प्रचंड उत्साह से थानेश्वर[१] के मैदान में डेरा डाला था और उसको कभी स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं आया था कि इन अगणित मनुष्यों के इकट्ठे होने का शायद यही फल हो जो आज उसके नेत्रों के सामने है। भाई, मित्र, संबंधी जो थे वे आज चारों ओर खूनी वस्त्र पहने हुए मिट्टी में थे। पक्षी उड़-उड़कर आते और उनके शरीर के मांस को नोच कर ले जाते थे। इन सबका प्रिय नेता दुर्योधन स्वयं भी शत्रु के हाथ से परास्त होकर जीने से निराश, साथियों के साथ प्रेम का दम भरता हुआ उस भूमि में पड़ा था। परमात्मा ने उसको इसलिए अब तक जीता रखा था जिससे कि वह अपनी मूर्खता का परिणाम अच्छी तरह से देख, समझ और अनुभव करके अपने प्राण छोड़े। हा! कैसा भयानक और शिक्षाप्रद दृश्य था। कौरव वंश का अधिपति हस्तिनापुर के राजा का पुत्र और उसकी यह अवस्था! ऐसे अवसर पर तो शत्रु भी रो देता है। अश्वत्थामा और कृपाचार्य इत्यादि को तो रोना ही था। रोने-धोने के पश्चात् अश्वत्थामा ने दुर्योधन पर प्रकट किया कि बदला लेने की आग उसके हृदय में वेग से जल रही है। उसने दुर्योधन से बदला लेने की आज्ञा माँगी। फलत: दुर्योधन ने कृपाचार्य इत्यादि की ओर लक्ष्य करके उस समय अश्वत्थामा को अपनी सेना का सेनाध्यक्ष निश्चित किया और उसको युद्ध जारी रखने की आज्ञा दी।
कौरव वंश के अभाग्य की समाप्ति नहीं हुई थी। द्रोण के इस वीर पुत्र के चित्त में बदले की आग जल रही थी। उसने यह ठान लिया था कि चाहे धर्म से या अधर्म से मैं अपने पिता
- ↑ कुरुक्षेत्र से अभिप्राय है, जो थानेश्वर के निकट है