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महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य: आचार्य द्रोण का सेनापतित्व /125
 


दूसरी ओर के लोग नहीं जानते थे और इसलिए वे इन शस्त्रों की मार से बचने की प्रणाली से भी अनभिज्ञ थे। परिणाम यह हुआ कि द्रोण ने पाण्डव सेना को अत्यन्त हानि पहुँचाई। इस हानि को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को यह सलाह दी कि द्रोण को किसी-न-किसी प्रकार मारना चाहिए, चाहे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई झूठी और अधर्म की चाल भी क्यो न चलनी पड़े। अत: उन्होंने यह सम्मति दी कि यदि द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा मारा जाये तो वे लडना छोड़ देंगे। इसलिए झूठमूठ ही उनको यह खबर पहुँचा दी जाये कि अश्वत्थामा मर गया है।

अर्जुन और युधिष्ठिर ने इस सलाह को अस्वीकार किया, परन्तु भीम और अन्य दरबारियो को यह चाल बहुत पसन्द आई। उन्होंने युधिष्ठिर पर दबाव डाला कि वे स्वयं अपने मुख से यह कहे, क्योंकि उनके अतिरिक्त और किसी के कथन का द्रोण विश्वास नहीं करेंगे।

युधिष्ठिर ने बहुत कुछ संकोच किया परन्तु भीम इत्यादि ने उन पर बड़ा जोर डाला। अत यह निश्चित करके अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मारा गया और द्रोण के आगे यह प्रकट किया गया कि तुम्हारा पुत्र अश्वत्थामा मर गया। द्रोण ने किसी के कहने पर इसका विश्वास नही किया और युधिष्ठिर से पूछा। युधिष्ठिर ने कहा कि “हाँ, अश्वत्थामा मारा गया" परन्तु धीरे से यह भी कह दिया-“हाथी" । द्रोण ने 'हाथी' तो सुना नहीं और अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर अत्यन्त दुखित हुए। यद्यपि उसके बाद भी वे बराबर लड़ते रहे परन्तु दिल टूट जाने से दुःखित होकर उन्होंने शस्त्र डाल दिये। उनके शस्त्र डालते ही विपक्षियो ने उनका सिर काट डाला।

अनेक विद्वानो की सम्पति है कि यह कहानी पीछे की मिलावट है। द्रोण ब्राह्मण थे धृष्टद्युम्न क्षत्रिय था। क्षत्रिय के लिए ब्राह्मण को मारना उचित नहीं था। इस कारण पांचाल दरबार के किसी कवि ने अपने राजपुत्र से ब्राह्मण हत्या का पाप दूर करने के लिए इस युद्ध का सारा बोझ श्रीकृष्ण के सिर मढ़ दिया है। श्रीकृष्ण को तो स्वयं परमेश्वर माना ही जाता है। परमेश्वर सब कुछ कर सकता है और उसके लिए सब कुछ उचित है, इस कारण उनके विचार से श्रीकृष्ण पर कुछ दोष नहीं आ सकता। सम्भवतः इस कहावत का एक और अभिप्राय भी है अर्थात् लड़ाई में धोखा, दगाबाजी, झूठ का व्यवहार उचित ठहराया जाता है। तथापि स्पष्ट प्रतीत होता है कि जिस समय यह कहानी बढ़ाई गई उस समय भी आर्यपुरुषों मे सत्य का इतना मान था, सर्वसाधारण को झूठ व धोखे से इतनी घृणा थी कि इस कहानी के बनाने वाले महाशय को यह भी लिखना पड़ा कि युधिष्ठिर ने जब यह असत्य कहा तो इससे उसका रथ, जो सत्यता के कारण पृथिवी से कुछ ऊँचाई पर चला करता था, वह पृथिवी के संग लग गया। युधिष्ठिर के लिए यह प्रसिद्ध है कि इससे पहले उसने कभी झूठ नहीं बोला था और उसकी सत्यता का प्रताप ऐसा था कि जिस रथ पर वह बैठता था वह रथ पृथ्वी से कई हाथ ऊपर हवा में चला करता था। परन्तु जब वह झूठ बोला तो तुरन्त उसका रथ पृथ्वी पर गिर पड़ा और अन्य साधारण मनुष्यो में तथा उसमें कोई भेद न रहा। उपर्युक्त लेख से यह प्रकट है कि द्रोण स्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनने पर भी युद्ध करता रहा। हम उन ग्रन्थकर्ताओं से सहमत