भीष्म विजय के अगले दिन दुर्योधन ने अपनी सेना का सेनापतित्व आचार्य द्रोण को सौंपा। यद्यपि द्रोण ब्राह्मण थे तथापि युद्धविद्या और शस्त्रविद्या में वे अपने समय के आचार्य तथा बड़े निपुण थे! युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, दुर्योधन इत्यादि सब इनके शिष्य थे जिनमें अर्जुन सबसे योग्य था। युद्ध के कुछ तरीके तो ऐसे थे जो उन्होने केवल अर्जुन को ही सिखाये थे, अन्य किसी को नही।
द्रोण के सेनापतित्व मे युद्ध बड़े वेग से आरम्भ हुआ और अधिक मारकाट होती रही। एक दिन अर्जुन लड़ाई का मैदान छोड़कर युद्धक्षेत्र के एक किनारे पर कौरव सेना के उस भाग से युद्ध कर रहा था जो द्रोण ने दुर्योधन के आधिपत्य मे भेजा था। पीछे से द्रोणा ने पाण्डवो पर ऐसे दाव-पेंच चलाये जिससे वे घबडा गये। उसने पाण्डवों के एक बड़े समूह को ऐसे व्यूह मे घेर लिया जिससे उनका बचना कठिन हो गया! पाण्डवों की सेना मे अर्जुन के अतिरिक्त और कोई इस व्यूह की लड़ाई को नहीं जानता था। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु, जो केवल 16 वर्ष का युवक था, किंचित् इस व्यूह विद्या को जानता था। अत: वह वीरतापूर्वक रणक्षेत्र में आया और अपनी वीरता के करतब दिखलाने लगा! 16 वर्ष के इस युवक ने कौरव सेनापतियों व सरदारो को इतना कष्ट दिया जिससे उन्हें इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नही सूझा कि सात चुने हुए महारथी (जिनमें द्रोण स्वयं भी सम्मिलित था) एकत्र होकर उस पर आक्रमण करें। अभिमन्यु अभी बालक ही था। उसमें इतनी सामर्थ्य कहाँ थी कि इन सात योद्धाओं का सफलता से सामना करता। बेचारा युद्ध करता हुआ रण में गिर गया और गिरते ही किसी ने उसका सिर काट लिया। अभिमन्यु का वध होना था कि पाण्डवों के दल में रोनापीटना आरम्भ हो गया। अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था और सारे पाण्डवा को उससे अधिक प्रेम था। सारी सेना उसकी सुन्दरता, वीरता, युद्ध-कौशल तथा बाणविद्या पर मोहित थी। सायंकाल जब लड़ाई बंद हुई, कृष्ण और अर्जुन भी लड़ते-लड़ते शिविर में आये तो सारी सेना को उन्होंने रोते-पीटते देखा। अर्जुन की आँखों के सामने तो अन्धकार छा गया। युधिष्ठिर अलग बेसुध थे। अंत में कृष्ण ने अपनी चतुर नीति से सबको धैर्य दिया और अर्जुन को समझाया। उन्होने कहा, "अभिमन्यु तो युद्ध करता हुआ सीधा स्वर्गधाम को सिघारा तुम क्षत्रिय पुत्र की मृत्यु पर रुदन कर क्यों अपना परलोक बिगाड़ते हो? क्षत्रियों के