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112 / योगिराज श्रीकृष्ण
 

उनका सारा राजपाट लौटा दिया। पर उन्होंने फिर दाव रखा और अंत में देश-त्याग का प्रण किया। मैंने किसी प्रकार उनके साथ कुछ छल नहीं किया। उन्होंने हमारे पारिवारिक शत्रुओं की सहायता की और उनकी सहायता से हमारे देश पर धावा करने और हमको लूटने को तैयार हुए।

"भय से तो मैं इन्द्र के सामने भी सर झुकाने को तैयार नहीं। मैं क्षत्रिय हूँ। मेरे पास भय नहीं फटक सकता। यदि मैं लड़ाई में मारा गया तो सीधा स्वर्ग को जाऊँगा। क्षत्रिय का महान् काम यही है कि युद्धक्षेत्र में लड़ता हुआ अपने प्राण दे दे। लड़ाई में शत्रु के सामने सिर नीचा किये बिना यदि हम वीरता से लड़ते जायें तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? मेरी बाल्यावस्था में मेरे पिता ने अन्याय से उन्हें आधा भाग दे दिया था। मैं किसी तरह उसे स्वीकार नहीं कर सकता। जब तक मेरा श्वास चल रहा है तब तक मैं सुई की नोक जितनी भूमि भी उन्हें नहीं प्रदान कर सकता।"[१]

दुर्योधन की ये बातें सुनकर कृष्णचन्द्र ने विराट रूप धारण किया और मारे क्रोध के आँख लाल करके कहने लगे, "हे दुर्योधन! क्या सचमुच तू बाणों की शय्या पर सोना चाहता है? अच्छा तेरी इच्छा पूर्ण हो और शीघ्र पूर्ण हो। हे मूर्ख! क्या तू समझता है, कि तूने पाण्डवों के साथ कोई अन्याय नही किया है? क्या ये सारे राजा-महाराजा जो यहाँ वर्तमान है, यह कह सकते है कि तेरा यह कथन सत्य है? तूने पाण्डवों को हानि पहुँचाने और उनको मारने के लिए क्या कुछ नहीं किया?" इस पर उन्होंने दुर्योधन की एक-एक करके सारी अनीतियाँ सुनाईं और फिर कहने लगे, "हे पापी! तू नहीं चाहता कि पाण्डवों को उनका पैतृक भाग दिया जाये यद्यपि वे विनयपूर्वक केवल अपना भाग माँग रहे हैं। यह याद रख कि तुझे उनका भाग तो देना ही पड़ेगा और तू फिर पश्चात्ताप करेगा। तुझे मैंने समझाया, तुझे धृतराष्ट्र ने समझाया, भीष्म ने समझाया, विदुर ने समझाया, द्रोण ने समझाया, पर तुझ पर किसी के समझाने का प्रभाव न हुआ। सत्य है, जब बुरे दिन आते हैं तो बुद्धि विपरीत हो जाती है और मनुष्य अभिमान से पूर्ण अपने इष्ट मित्रों के उपदेश को तुच्छ समझने लगता है।"

कृष्ण का यह कथन सुनकर सारे दरबार में सन्नाटा छा गया। निदान दुःशासन बोला "हे दुर्योधन, यदि तू खुद पाण्डवों से सन्धि नहीं करेगा तो राजा (धृतराष्ट्र) तेरे हाथ-पैर बाँधकर तुझको, मुझको और कर्ण को पाण्डवों के हवाले कर देंगे, फिर तू क्या कर सकता है?"

यह सुनकर दुर्योधन पहले तो बड़ा असमंजस में पड़ा। फिर सर्प की तरह फुकारता हुआ उठकर दरबार से चल दिया। उसके साथ ही उसके भाई-बन्धु और इष्टमित्र भी चलते बने। अब कृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहना आरम्भ किया, "हे राजन्! अब उचित है कि आप अपने इस दुराचारी पुत्र को बन्दी कर ले। बुद्धिमानी तो इसी में है कि कुल की भलाई के लिए एक पुरुष की परवाह न की जाये। अन्यथा यदि कुल के अहित से देश या जाति का हित हो तो कुल की परवाह नहीं करनी चाहिए और आत्मा के उपकार के लिए समस्त संसार की परवाह नहीं की जाती। इसलिए हे राजन्! दुर्योधन को बन्दी करके आप पाण्डवों से सन्धि कर लें।

 

  1. सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव