पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१०९

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चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप

इतिहास लेखक[१] लिखता है कि रात का भोजन करने के पश्चात् जब विदुर और कृष्ण इकट्ठे हुए तो विदुर ने कृष्ण से कहा, "हे कृष्ण! आप व्यर्थ में यहाँ आये। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके उपदेश से कुछ काम नहीं निकलेगा। दुर्योधन ने एक बड़ी सेना इकट्ठी कर ली है। जो क्षत्रिय आपके शत्रु हैं, वे सब उसके सहायक हो रहे हैं। उसे अपने सेनाबल पर इतना भरोसा है कि वह अभी से अपने को विजयी समझने लगा है। धन और राजपाट की इच्छा ने दुर्योधन की आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। उसके सभासद भी उसी के समान कामी और क्रोधी हो गये हैं। मुझे दुःख है कि आपने व्यर्थ ही इन दुष्टों के पास आने का कष्ट उठाया। पाण्डवों का सहायक समझकर ये सब आपके लहू के प्यासे हो रहे हैं। मुझे भय है कि वे आपको कुछ हानि न पहुँचाएँ। इसलिए मेरी सम्मति है कि आप इस काम को त्याग दें और इनकी सभा में न जायें, क्योंकि मुझे आपके कार्य की सफलता की तनिक भी आशा नहीं है। जिस सभा में अच्छी या बुरी बात का अन्तर न विचारा जाए वहाँ बातचीत ही नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार चाण्डालों के सामने ब्राह्मणों के वचन का सत्कार नहीं होता उसी तरह दुर्योधन की सभा में आपके कथन या आशय का सम्मान नहीं होगा। अत: ऐसे व्यर्थ काम से दूर रहना ही अच्छा है।"

इसके उत्तर में कृष्ण बोले, "हे विदुर! मैं इस उपदेश के लिए आपका बहुत ही अनुगृहीत हूँ। धर्मात्मा और भद्रपुरुष ऐसी ही सलाह दिया करते हैं। परन्तु मुझे खेद है कि मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। मैं दृढ़ संकल्प करके आया हूँ कि कम-से-कम एक बार अवश्य इस बात का यत्न करूँ कि ये लोग वृथा सृष्टि के प्राण नष्ट न करें।

"इस समय मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि देश को और विशेषतः क्षत्रिय वंश को इस विनाश से बचाने के लिए एक बार फिर कोशिश करूँ। यदि इसमें मैं सफलीभूत हुआ तो मैं समझूँगा कि मैंने महान् धर्म का काम किया। नहीं तो कम-से-कम मुझे इतना हार्दिक संतोष तो अवश्य रहेगा कि मैंने अपनी ओर से यत्न करने में कुछ कमी नहीं की। प्रत्येक सच्चे मित्र का धर्म है कि अपने मित्र को बुरे काम से बचाये। कौरव और पाण्डव मेरे संबंधी हैं, दोनों के साथ मुझे प्रेम है। इस समय मैं देखता हूँ कि दोनों दल एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं। इसलिए मेरा धर्म है कि इस उत्पात को मिटाने का यत्न करूँ। चाहे कोई माने या

 

  1. ध्यात