पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१०३

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संजय का दौत्य कर्म /103
 


(अपने-अपने धर्म) में स्थिर रहें। क्या न्याय करना और अनीति और अत्याचार को दण्ड देना उसका धर्म नहीं है। यदि कोई पुरुष छल से या अधर्म से दूसरों का धन छीने तो बताओ उसके साथ राजा क्या वर्ताव करे? यदि ऐसी दशा में भी लड़ाई करना पाप है तो फिर ये शास्त्रादि किसलिए बनाए गए है? शास्त्र कहता है कि अधर्मी, पापी और दस्यु को शस्त्र से दण्ड देना क्षत्रिय का धर्म है और इसी से क्षत्रिय को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसलिए ऐसी अवस्था में लड़ाई करना कैसे पाप हो सकता है? आपको देखना चाहिए कि धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों ने क्या-क्या किया। उन्होंने अधर्म से पाण्डवों का धन छीन लिया। याद रखो कि छिपकर चोरी करना या सामने चोरी करना दोनों ही समान पाप हैं। फिर बताओ दुर्योधन और चोर में स्या भेद रहा? इसके अतिरिक्त दुर्योधन तथा उसके दुष्ट साथी द्रौपदी को नग्न घसीट कर दरबार मे ले गये और उसका अपमान किया। बड़े दुख की बात है कि उस समय दुर्योधन को किसी ने नहीं समझाया और न पूछा कि तुम यह क्या करते हो। संजय, तुम तो उस समय वहाँ थे, तुमने उस समय कर्ण को क्यो नहीं मना किया कि वह अर्जुन को ताना न दे। उस समय तो सारी सभा कायरो की तरह चुप रही और अब प्रत्येक पुरुष युधिष्ठिर को उपदेश देने आता है कि वह लड़ाई न करे।

"फिर भी मेरी यही इच्छा है कि बिना लड़ाई के न्याय हो जाये। मैं स्वयं तैयार हूँ कि कौरवों के पास जाऊँ और उन्हें समझाऊँ। यदि वह मेरे समझाने से पाण्डवों को उनका अधिकार दे दें तो मैं अपने आपको कृतार्थ समझूँगा।"