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योगवासिष्ठ।

काटता है, तैसे स्वरूपके आवरण करिकै जीवकला दुर्भाग्यता जन्ममरणदुःखको प्राप्त होती है, जैसे भरतारते रहित स्त्रीशोकवान् होती है, तैसे यह कष्टको पाती है॥ हे मुनीश्वर! जड जो है, दृश्य अनात्मरूप, तिससे प्रीति करनेकरि अरु निजस्वरूपके विस्मरणकरि आशारूपी फांसीसे बांधा हुआ चित्त जीवको नीच योनिविषे प्राप्त करता है, जैसे घटीयंत्रके टींद कबहूँ अधको जाते हैं, कबहूँ ऊर्ध्वको जाते हैं, तैसे जीव आशाका वश हुआ कबहूँ पाताल, कबहूँ आकाशको जाता है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे वसिष्ठेश्वरसंवादे चैतन्योन्मुखत्वविचारो नाम एकोनत्रिंशत्तमः सर्गः ॥२९॥



त्रिशत्तमः सर्गः ३०.

ईश्वरोपाख्याने मनःप्राणोक्तप्रतिपादनम्।

ईश्वर उवाच॥ हे मुनीश्वर! स्वरूपके विस्मरण करिकै इसप्रकार होता है, कि मैं हंता हौं मैं दुःखीहौं सो अनात्माविषे अहंप्रतीति करिकै दुःखका अनुभव करता है, जैसे स्वप्नविषे पुरुष आपको पर्वतते गिरता देखता है, दुःखी होता है, अरु मृतक हुआ आपको देखता है, तैसे स्वरूपके प्रमाद करिकै अनात्मविषे आत्माभिमान करिकै दुःखी आपको देखता है॥ हे मुनीश्वर! शुद्ध चेतनतत्त्वविषे जो चित्तभाव हुआ है, सो चित्तकला फुरणेकार जगत‍्का कारण हुआ है, तिसकार जगत् होता गया है, परन्तु वास्तव स्वरूपते इतर कछु नहीं भया, जैसे जैसे चेतती गई है, तैसे तैसे जगत् होता गयाहै, वह चित्तका कारणरूप भी नहीं भया, जब कारणही नहीं भया, तब कार्य किसको कहिये॥ हे मुनीश्वर! न वह चित्तहै, न चेतन है, न चेतनेवालीहै, न द्रष्टा है, न दृश्य है, न दर्शन है, जैसे पत्थरविषे तेल नहीं होता, सो न कारण है, न कर्म है, न करण इंद्रियां हैं, जैसे चंद्रमाविषे समता नहीं होती, न मन है, न मानने योग्य दृश्य वस्तु है, जैसे आकाशविषे अंकुर नहीं होता न अहंता है, न तू है, न दृश्य है, जैसे शखको श्यामता नहीं होती॥