पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४६

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प्रश्नोत्तरवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१८२७) निमित्त कि हमारे ताई वह प्राप्त होवै, सब तिसकी बौछा करते हैं हम भत्त होवें, अरु एकका निश्चय यही है, अरु वह स्त्री पतिव्रता है, तिसके सहस्र भत्ती एक कालविषे कैसे होगे, अरु अष्टम प्रश्न यह है, कि एक पुरुष था, तिसको किसीने वर दिया कि तू जायकारि मृतक होय सप्तद्वीपका राज्य करु, अपर किसीने शाप दिया कि तेरा जीव अपनेही गृहविषे रहैगा, मृतक होय बाहिर नजावैगा, यह दोनों एकही कालविर्षे कैसे होवेंगे, अरु नवम प्रश्न यह है, कि एक काष्ठका स्तंभ था, तिसको एकने कहा, स्वर्णका होजावैगा, वह स्वर्णका होगया, सो स्वर्ण कैसे उत्पन्न भया, तिसका कारण कोऊ न था, कारणविना कार्य कैसे उत्पन्न भया ! जैसा अन्नका बीज होता है, तैसाही अन्नकार्य उत्पन्न होता है। अपर नहीं उगता, तौ काष्ठते स्वर्ण कैसे उत्पन्न भयो, अरु जो कहौ, संकल्पकार उपजा तौ हम भी संकल्प करते हैं, हमका कार्य ऐसे हो। वह क्यों नहीं होता, ताते जानाजाता है, कि संकल्पते भी उत्पन्न नहीं होता ॥ हे मुनीश्वर 1 जिसप्रकार यह वृत्तांत है सो कहौ, अरु एक कहते हैं, कि आगे असवही था तौ असत्ते जगत्की उत्पत्ति कैसे भई, यह मुझको संशय है, तिसको दूर करहु, जो कोङ संतके निकट आनिप्राप्त होता है, सो निष्फले नहीं जाता ताते कृपा कर कहौ । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणै राजप्रश्नवर्णनं नाम द्विशताधिकञ्यशीतितमः सर्गः ॥ २८३॥ द्विशताधिकचतुरशीतितमः सर्गः २८४. प्रश्नोत्तरवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जब इसप्रकाई उसने मुझको संशयका समूह कहा, तब मैं उसको कहत भयो कि । हे राजन् ! जेते कछु तुझको संशय हैं सो मैं सब दूर करूंगा, जैसे संपूर्ण अंधकारको सूर्य नाश करता हैं, तैसे मैं संशय नाश कराँगा ॥ हे राजन् । जैता