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जगदाभासवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८६३ हे रामजी । जेते कछु आकार तुझको भासते हैं, सो सब आकाशरूप हैं, आकाशविषे आकाश स्थित है, स्वर्गके आदि आकारका अभाव था सो अवहीं जान, जो उपजा को नहीं, परम आकाशसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जब तिस अद्वैतसत्ता चिन्मात्रविषे चित्त किंचन होता है, तब वहीं सत्ता आकारकी नाई भासती है, परंतु कछु हुआ नहीं, आकाशरूपही है, जैसे स्वप्नविषे शरीरोंका अनुभव करता है सो कछु आकार तौ नहीं होते, आकाशरूप होते हैं, तैसे यह जगत् भी निराकार है, परंतु ऊरणेकार आकार हो भासता है, जिन तत्त्वते शरीर होता है, सौ तत्त्वही उपजे नहीं तो शरीरकी उत्पत्ति कैसे कहौं । हे रामजी ! अपर जगत् कछु उपजा नहीं, ब्रह्मही किंचनकार जगरूप हो भासता है, जैसे जल अरु द्रुवताविषे भेद नहीं, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद नहीं, तैसे ब्रह्म अरु जगविषे भेद नहीं, संवेदन करिकै अर्थसंकेत है, जब संवेदन न फुरै, तव अर्थसंकेत न होवे, भिन्न भिन्न वस्तुते एकही सत्ताके नाम हैं, भिन्न नाम तव भासते हैं, जब वेदना फुरती है, नहीं तो शब्द जलरवके तुल्य हैं, वस्तुते भेद नहीं, जैसे वायु अरु स्पंदविषे भेद नहीं परंतु स्पंदुरूप हो भासती है, निस्पंद नहीं भासती, परंतु दोनों रूप वायुके हैं, जैसे स्पंदकर ब्रह्मविषे किंचन जगत् भासता है, जब संवेदन् नहीं फुरती, तव जगत् नहीं भासता, परंतु दोनों रूप ब्रह्मही हैं, ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, जैसे एक निद्राके दो रूप होते हैं, एक स्वप्न अरु दूसरी सुषुप्ति, परंतु दोनों एक निज़ाके पर्याय हैं, तैसे जगत्का होना अरु न भासना एक ब्रह्मकी दोनों संज्ञा हैं, ऊ ब्रह्म कहो, कोऊ जगत् कही ब्रह्म अरु जगतविषे भेद कछु नहीं, ब्रह्मही जगतरूप ही भासता है, जैसे निर्मल अनुभवसों स्वप्नविषे शिला भासि आती है, सो शिला तौ कछु स्वप्नविषे उपजी नहीं, अपना अनुभवही शिलारूप हो भासता है, तैसे जेते कछु आकार अव भासते हैं, सो सव आकाशरूप हैं, आत्मसत्ताही आकाशरूप जगत् हो भासती है, अपर जगत् कछु उपजा नहीं होता, न स है, न असत् है, न आता है, न जाता है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है। राम उवाच ।। हे मुनीश्वर ! आगे तुम मुझको